पाठिका संग मिलन-2

(Pathika Sang Milan- Part 2)

लीलाधर 2019-05-06 Comments

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“हा हा हा!” जलतरंग की सी हँसी- आप सचमुच तेज हैं, पहचान लिया!
“कोई बड़ी बात नहीं। लीलाधर का नंबर गिने-चुने के पास ही है। और उनमें पाठिका सिर्फ एक ही है।”
“अच्छा!”
उसे गर्व हुआ होगा। मैंने उसके कसे वस्त्रों के नीचे वक्षों के फूलने की कल्पना की।

एक क्षण का अटपटा मौन रहा, फिर प्रश्न आया- कैसे हैं आप?
“अच्छा हूँ। आपसे बात करके और अच्छा हो गया हूँ।”
वह शायद लजा गई। मुझे लगा मुझे अपना उत्साह कम करना चाहिए।
“आप कैसी हैं?” मैंने पूछा.
“अच्छी हूँ।”
“और आपके पतिदेव? परिवार के अन्य लोग?”
“सब अच्छे हैं।”

“आपने फोन किया, शुक्रिया।”
“आपको भी धन्यवाद।”
“लेकिन मैं आपको बधाई देना चाहता हूँ।”
“किसलिए?”
“आज आपने पहला कदम उठा लिया, इसलिए।”
“नहीं, वो बात नहीं है। असल आप बहुत अच्छा लिखते हैं, आपसे बात करना चाहती थी।”
मैंने हँसी की- बात निकली है तो फिर दूर तलक भी जा सकती है।
“अरे रे … !”

“खैर छोड़िए। अच्छा ये बताइये, पति महोदय राजी हैं?”
अचानक सवाल से वह लजा सी गई। कुछ देर ‘क्या’, ‘किसलिए’ वगैरह करने के बाद बोली- पता नहीं। नाराजगी तो अब तक नहीं दिखाई। हो सकता है मुझे देख रहे हों।
मैंने कहा- पुरुष इतनी देर देखता नहीं रह सकता। उन्हें बुरा लगा होता तो आपको पता चल जाता।

कुछ देर सामान्य रस्मी बातें, जैसे, पति कैसे हैं, क्या करते हैं, घर में कौन कौन हैं वगैरह के बारे में बात करता रहा। मन में कोशिश थी यह जानने की कि वह अकेली घर से निकल सकती है या नहीं, किस वक्त निकल सकती है। हालाँकि कहाँ वह पूना में और मैं कलकत्ते में। किंतु आज के तीव्र संचार-साधनों में कौन सी दूरी बड़ी है?

“बड़ी दूर रहती हैं आप।” आखिरकार मैंने कहा।
“हाँ, दूरी तो है।” उसने फिर जोड़ा- लेकिन क्या पता दूर आए दुरुस्त आए?
“वाह वाह, क्या बात कही है आपने!” मैं उसकी हाजिरजवाबी पर खुश हुआ। “यहाँ तो देरी और दूरी दोनों का संयोग है। लगता है कुछ बहुत ही दुरुस्त आएगा।”
“दूर के ढोल सुहाने भी होते हैं। ”

बातचीत में दक्ष जोड़ीदार मुझे अच्छा लगता है। मैंने बातचीत की दिशा को सामान्य की ओर बदलते हुए पूछा- इधर कभी आना नहीं होता आप लोगों का?
“नहीं उधर तो कभी गए नहीं।”
“आ जाइये, देखने लायक जगह है, हालाँकि शायद पूना से सुंदर नहीं है।”
“आप आते हैं इधर?”
“नहीं, मैं भी नहीं गया लेकिन तारीफ सुनी है।
“हाँ, पूना सुंदर है।” उसकी आवाज में गर्व था।
“शायद आपसे मिलने के बाद पूनावालियों की सुंदरता का भी अंदाजा मिलेगा।”

मैंने सोचा न था वह इतना ठठाकर हँसेगी। मैंने उत्साहित होकर जोड़ा- वह भी एकदम नेचुरल फॉर्म में, विदाउट एनी कवर।” मन तो हुआ था ‘बिना कपड़ों के’ कहने का, लेकिन मर्यादा के संस्कारों ने रोक दिया।
वह सचमुच चुप हो गई। मैं डर सा गया, कुछ क्षण चुप्पी रही।
“मैंने शुरू में कहा था कि मैं सिर्फ आपसे बात करना चाहती थी। आप बहुत अच्छा लिखते हैं, इसलिए।”
“नीता जी, बुरा लगा हो तो सॉरी! मैंने तो सिर्फ सम्भावना की बात कही थी।”
स्त्री की चुप्पी … बड़ी पीड़ा देती है। मेरा दिल उत्सुकता में लटका रहा।
“ओके। नाउ बाइ!”

अरे, ये क्या हो गया! क्या कहूँ, कुछ समझ नहीं आया- बाइ!
जा … चला गया। आशा का एक तिनका अभी ठीक से उगा भी नहीं था कि मैंने अधीरता में कुचल दिया। लेकिन वह तो ऐसी लगी नहीं कि इतनी सी बात से नाराज हो जाए? क्या पता। नग्नता की चर्चा तो क्या, जरा सा आभास भी औरतों का मूड ऑफ कर देता है। लेकिन लिखने में तो उसको जरा सा भी संकोच नहीं था? बोलने भर से क्या हो गया? चलो छोड़ो, मैंने सिर झटका।
लेकिन न चाहते हुए भी बात दिनभर दिमाग में घूमती रही। उस नम्बर को मैंने सेव कर लिया।

कई दिन बीत गए, शायद पंद्रह दिन। उसी प्रतीक्षित नंबर का कॉल आया, इस बार मैंने सीधे दिल खोल दिया- मुझे तो लगा था कि अब आपका कॉल नहीं आएगा। उस दिन नाराज हो गईं।
“अरे ऐसा नहीं है।”
“उस दिन … बात तुरंत समाप्त कर दी थी।”
“मेरी सास बाहर गई हुई थीं। वापस आ गईं। इसलिए कॉल समाप्त करना पड़ा।”
“ओह!” मैंने रिसीवर में सुनाते हुए जोर से साँस छोड़ी- तसल्ली हुई। लेकिन इतने दिन बाद?
“कब आ रहे हैं इधर?”
इतनी जल्दी? मैं चौंक गया- मैं ठीक से सुन नहीं पाया। जरा फिर से कहिए?
“छोड़िए तब।”

“ठीक है, जैसा आप चाहें। कैसा है पूना का मौसम?”
“अच्छा है, लेकिन यह क्यों पूछ रहे हैं आप?”
“लगता है इधर उसमें कुछ खास तब्दीली आई है।”
वह हँस पड़ी। इशारा समझ गई थी, फिर भी कुछ इठलाते हुए बोली- लगता है मौसम का समाचार ज्यादा देखते हैं।
“अच्छे मौसम का इंतजार किसको नहीं होता?”
“सो तो है, वाकई …”

“लगता है आपके पति राजी हो गए हैं।”
“आप बड़ी खूबसूरती से बातें करते हैं। अपनी कहानियों की तरह!”
“इसीलिए तो उस दिन आपको नाराज कर दिया।”
“अरे मैंने कहा न कि ऐसा नहीं है।”
“अच्छा लगा जानकर। क्या कहा पति महोदय ने?”
“हूँ …” उसने लंबी साँस भरी- हम दोनों बाहर गए थे, इसीलिए आपसे इतने दिन फोन नहीं कर पाई। उस दौरान हम दोनों को कुछ ठीक से बात करने का मौका मिला। वे खिलाफ तो पहले भी नहीं थे, लेकिन उनके मन में क्या है मैं समझ नहीं पा रही थी।

“तो क्या अब उन्होंने हामी भर दी?”
“ऐसा तो नहीं है, लेकिन कहा कि पहले कुछ दूर बढ़कर देखते हैं। कैसा लगता है उसके बाद आगे देखेंगे।”
“ये तो बहुत अच्छी बात है। पॉजिटिव साइन है।”
“लेकिन मैं ही दुविधा में हूँ। मरदों का क्या, वे तो चाहते ही हैं कइयों से करना।”
इस आरोप के दायरे में मैं भी था, सो चुप रहा। लीलाधर कोई सामान्य व्यक्ति नहीं जो किसी की सह ले।

“हलो!”
“हलो!”
“सुन रहे हैं न?”
“हाँ, सुन रहा हूँ। बोलिए।”
“लगता है आप बुरा मान गए।”
“नहीं … लेकिन पुरुष इतने बुरे भी नहीं होते।”
“सो तो है … सॉरी।”

मैं सोच ही रहा था कि क्या उत्तर दूँ कि उसकी आवाज आई- जानते हैं?
मैं उत्सुकता से भर उठा।
“मेरे पति भी बहुत अच्छे हैं।”
धत तेरे की! ये क्या बात हुई। अच्छे हैं तो रखो अपने पास।
“सच कहूँ तो मुझे लगता है कि वे मेरा मन रखने के लिए सहयोग कर रहे हैं। खुद इतने इच्छुक नहीं हैं शायद।”

यह बड़ी मार्के की बात थी। मुझे कहना पड़ा- तब तो आपके पति महान हैं।
“रियली ही इज ग्रेट! उनकी ऐसे ही तारीफ नहीं करती हूँ।”
“हूँ …” मैं सुन रहा था। “लेकिन मैं उनको लिए बिना आगे नहीं बढ़ूंगी। ऐसा कैसे हो सकता है कि मैं एंजॉय …” कहते कहते रुक गई।

ऐसी ही लज्जाओं पर तो पुरुष का दिल बार बार कुर्बान होता है। मैं उसके आरक्त चेहरे की कल्पना करता रहा।

“एक स्त्री के रूप में आप सही सोचती हैं। लेकिन सच कहूँ तो पुरुष को भी सबसे अधिक आनन्द अपनी पत्नी को आनन्द लेते देखने में ही आता है। वह स्वयं सेक्स कर रहा हो तब भी पत्नी के रिस्पॉन्स से ही उसे संतोष होता है।”
कितनी सहजता से सेक्स की बात चली आई थी। मैं स्वयं चकित हुआ।
“हूँ …”

“अभी जो आपने आने का आमंत्रण दिया है, उसका शुक्रिया।”
“धत् …!” वह फिर एकदम से शरमा गई। मैंने कल्पना में उसके शर्माए चेहरे को चूमते हुए कहा- देखता हूँ क्या किया जा सकता है।
“कोई जल्दी नहीं है। जब मौका मिले तभी आइये।”
“शुभस्य शीघ्रम! क्या पता बाद में इरादा बदल जाए।”
“उनको लेकर आइयेगा।”
मैंने वादा करना टालते हुए कहा- शुक्रिया, बहुत बहुत शुक्रिया, आज के लिए इजाजत दीजिए, बाय!”
“बाय!”

आज की बातचीत तो बहुत ही जबरदस्त रही। मैं बेहद खुश था। मुझे उसको दिया अपना ही उपदेश याद आ रहा था- जिंदगी एक ही मिली है नीता जी और उसमें भी यौवन कुछेक दिन का है। जो इस वक्त हासिल हो पा रहा है उसका आनन्द ले लीजिए और अपने जीवन साथी को भी इसका मौका दीजिए।

पूर्व में कई अच्छे प्रस्ताव मेरी लेटलतीफी और शंकित रहने की आदत से निकल गए थे। इस बार मैं तैयार था। साल भर की दुविधा के बाद अब जब यह खुद से तैयार हो गई है तो छोड़ना नहीं है।
जलदबाजी में पत्नी को शामिल करना मुश्किल था। उसे अबतक मैंने कुछ बताया भी नहीं था। बताने पर अकेले जाना बुरा भी लगता।

मैंने नीता को फोन किया कि ऑफिस का एक काम पूना जाने के लिए मिल गया है।
“अच्छा! इतनी जल्दी?”
“लगता है भगवान जल्दी चाहते हैं।”
“ओह हो..!”
“एक सप्लायर की फैक्ट्री की इंस्पेक्शन करनी है। उससे हमारी कम्पनी पुर्जे खरीदती है।”

“मिसेज को भी ला रहे हैं ना?” उसने पूछा।
“बच्चों के टर्म एक्जाम होने वाले हैं इसलिए उन मुश्किल है।”
“नहीं नहीं, आप दोनों साथ आइये।”
“अगली बार साथ रहेंगी।”
“लेकिन मेरे पति …”

“नीताजी, पहले केवल मिल लेते हैं। क्या पता मैं आपको या आपके पति को पसंद ही न आऊँ।”

ज्यादातर दम्पति केवल पति के आने की बात सुनकर फेक (नकली) होने का संदेह करने लगते हैं। लेकिन नीता के स्वभाव में एक परिपक्वता और आत्मविश्वास थे। और फिर उसे मेरी कहानियों में पढ़ी घटनाओं से मुझपर भरोसा था। उसने ज्यादा जिद नहीं की।

ट्रेन का कन्फर्म टिकट नहीं मिला। मैंने फ्लाइट बुक कर ली।
पाठकगण, कृपया आप अपनी राय नीचे कमेंट्स में एवं मेरे ईमेल [email protected] पर अवश्य भेजें।

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