पुष्पा का पुष्प-2

(Pushpa Ka Pushp-2)

लीलाधर 2009-10-09 Comments

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उसकी पनीली आँखों में, जिनमें एक अजब-सा मर्म को छूता भाव उमड़ रहा था। शर्म से लाल गालों पर झूलती लट, बालों के बीच सफेद मांग ! खाली।

मेरे भीतर कुछ उमड़ आया। उस तमाम निर्भयता और तेजी के पीछे एक अदद औरत उमड़ रही थी, वह औरत जो खुद उसे तीर से भेदने वाले शिकारी को ही खुद को समर्पित कर देती है।

मैंने सिर घुमाया। आसपास कोई नहीं था। फूलों की झाड़ लम्बी थी। हम उसकी ओट में थे। मैंने सिर झुकाया और उसके होठों पर हल्का सा चुम्बन लिया।

“तुम अद्भुत हो। मुझे तुम जैसी साथ देने वाली कोई और नहीं मिलेगी।”

उसने सिर झुका लिया।

“मुझसे शादी करोगी?” मुझे हैरानी हुई मेरे मुँह से क्या निकल गया।

मैं शादी के लिए गम्भीर नहीं था और वह भी मुझसे शादी करना पसंद करेगी कि नहीं मालूम नहीं था मगर अपने जोड़ का साथी के रूप में पत्नी के रूप में उसकी कल्पना मुझे बड़ी अच्छी लगती थी।

वातावरण बोझिल हो गया था। मुझे लगा इस बोझ में मेरा उसे पाने का लक्ष्य दब न जाए। हालांकि घूमती हवा और चिड़ियों की चहचहाहट स्फूर्तिदायी थे।

अच्छा बताओ, पुष्पा के पुष्प का रंग कैसा है?” मैंने मजाक करना चाहा था मगर मुझे अफसोस हुआ मुँह से क्या निकल गया।

इतनी गंभीर बातों के बाद इतनी सस्ती, इतनी छिछोरी बात ! मगर आज का दिन ही लगता है अप्रत्याशित बातों के लिए था।

उसने कुछ न समझते हुए मुझे देखा। मैंने उसी फूल को, जिसमें काँटा चुभाया था, उसके सामने कर दिया।

“तुम भी कैसी बातें करते हो।”
“सचमुच बताओ न?”
“अजीब हो!”

“तुम्हारे बाग में तरह तरह के रंग के गुलाब है लाल, कत्थई, गुलाबी, बैगनी, काला भी, सफेद भी। तुम्हारे होंठ लाल गुलाब के रंग के हैं। वह भी लाल है या…?” मैंने हिम्मत करके कहा।

“छी: तुम बेहद गंदे हो।”
“बताओ ना ! गंदा कहकर उस फूल को अपमानित न करो।”

वह मेरी ओर कुछ देर तक देखती रही। फिर कुछ जैसे सबल हुई,”मगर … छी: … ओके, वह फूल तुम देखोगे कैसे?”

“क्यों? क्या परेशानी है?”
“आज अमावस्या है।”

अबकी बारी मेरे हैरान होने की थी। वह भी चकित कर देने में कम न थी।

“इसका मतलब आज ही….!!” आज सचमुच आश्चर्यों का दिन था।

इच्छा हुई कि नाचूँ। मैं जिस खजाने को दूर समझकर पाने के लिए इतना दाएँ बाएँ कर रहा था वह उम्मीद से पहले अचानक सामने आ गया था। आज का दिन मुरादों के पूरे होने का दिन था।

“कब? कैसे? कहाँ?”

“इन्तजार करना।”

मैं कुछ और कहना चाहता था। मगर उसने कहा,”जाओ।”

अतिथियों के लिए कमरा छत पर था। मुझे उसी में ठहराया गया था। ऊपर अकेला कमरा। सामने खुली सहन थी। किनारे फूलों के गमले सजे थे। पुष्पा के पिता शौकीन थे, फूलों से उन्हें अच्छी आय होती थी।

कमरे को खूबसूरती से सजाया था। एक बड़ा-सा पलंग, खिड़कियों पर सुन्दर पर्दे, खिड़की खोलते ही बाग के फूलों का सुन्दर दृश्य दिखता था। अटैच्ड बाथरूम, टॉयलेट, नहाने का टब भी।

कहते थे यह कमरा शादी के बाद बेटे को दूंगा, ऊपर एकांत में आजादी से आनंद मना सकेंगे। खुले विचारों के थे। फूलों के प्रेमी का रोमाण्टिक होना स्वाभाविक था। शायद पुष्पा पर उनके खुलेपन का असर था। वरना पुष्पा एक ‘ब्वायफ्रेंड’ को अपने घर कैसे बुलाती।

‘ब्वायफ्रेंड’…’ मैं मुस्कुराया।

मैंने खुद को कभी इस रूप में देखा नहीं था। आज उस खूबसूरत कमरे में उनकी खूबसूरत बेटी के साथ जो मैं करने वाला था वह किस श्रेणी में आता था?

मुझे एक मजेदार खयाल आया- जिस तरह पूजा के बाद मिट्टी की मूर्ति में देवता की प्राणप्रतिष्ठा होती है उसी तरह आज इस कमरे में भी अक्षत कौमार्य की पूजा के बाद स्त्रीत्व की प्राणप्रतिष्ठा होगी। क्या उन्हें इतनी महत्वपूर्ण बात का गुमान भी है।

अक्षत कौमार्य ! मैं इस ख्याल पर ठहरा। मुझे मालूम नहीं था वह अक्षत है कि नहीं। खुले विचारों की लड़की है, नहीं भी हो सकती है।

पूछना चाहा था, मगर हिम्मत नहीं हुई।

जब उसने मुझसे पूछा था कि कितने फूल तोड़े हैं तब भी मैं हिम्मत नहीं कर पाया था। लगता था यह बात पूछने से उसकी बेइज्जती होगी। एक औरत से यह पूछना ही उसकी गरिमा के खिलाफ है। यह कहानी आप अन्तर्वासना डॉट कॉम पर पढ़ रहे हैं।

मुझे एहसास हुआ मैं आमोद-प्रमोद के भाव से आगे जाकर उसे महत्व देने लगा हूँ। वह सुन्दर है बुध्दिमान है, शिक्षित, एनर्जेटिक और सलीकेवाली। उतने खुलेपन के बावजूद मैंने उसमें छिछोरापन नहीं देखा था। आज तो मैंने उसे ‘प्रोपोज’ भी कर दिया था।

जाड़ों की शुरुआत हो रही थी। सुबह हवा में ठंडक होती थी। सहन पर फैली धूप अच्छी लगती थी। मुझे फैली धूप देखकर चांदनी रात का खयाल आया। आज अगर पूर्णिमा की रात होती तो खुली चांदनी में छत पर उसके संग प्रणय में कितना मजा आता।

चांद की बरसती सफेदी में नहाता हुआ देखता पुष्पा का पुष्प।

पुष्पा का पुष्प … पुष्पा का पुष्प … बार बार दिमाग में घूमने लगा।

जब भी कोई आहट होती, मेरी उत्सुकता और उत्तेजना बढ़ जाती। सीमा पर बंकर में बैठे सिपाही की तरह छोटी से छोटी आहट पर कान लगे थे।

तीसरा पहर, रात भीग रही थी। मेरी आँखों में नींद का पता नहीं। उत्कण्ठा में रोम रोम कान हुए जा रहे थे। खिड़की के बाहर अंधेरे में सारा जग जैसे घुलकर खो गया था। झींगुरों की आवाज और बहती हवा में ताड़ के पत्तों की सरसराहट के सिवा और कोई आवाज नहीं। कभी कभी पहरेदार का स्वर दूर से आता।

दुनिया सो रही थी। मेरी बेसब्री का ठिकाना नहीं था। एक तो बज रहा है, अब और कितनी देर लगाएगी।

कहीं मैंने गलत तो नहीं समझा। उसने जगह समय वगैरह तो कुछ बताया नहीं था, सिर्फ कहा था इंतजार करना। अब अमावस्या की रात में अपने कमरे को छोड़कर उसका इंतजार और कहाँ किया जा सकता है !

बाहर तारों की रोशनी में सीढ़ीघर की ओर देखने की कोशिश कर रहा था, आ रही है या नहीं।

इंतजार में बहुत कष्ट होता है। सिर पर हाथ रखकर लेटे कुछ से कुछ सोचता नाउम्मीदी को टालने की कोशिश कर रहा था।

पता नहीं कब आँख लग गई और जब नींद खुली तो देखा खिड़की के बाहर सुबह की धूप फैली थी। वह नहीं आई। उसने मुझे झूठी उम्मीद दिलाई थी। मुझे गुस्सा आया।

वह बगीचे में फूलों के पौधों में पानी दे रही थी, मुझे देखकर मुस्कुराई।

मुझे लगा, वह मुझ पर हँस रही है, मेरा मजाक उड़ा रही है।

“कैसे हो?”

इस सवाल से गुस्सा और बढ़ गया। एक तो खुद वादा करके नहीं आई और अब पूछती है कैसे हो ! मैं गुस्से को दबाते हुए चुप रहा।

“तुम्हारी आँखें लाल हैं। रात सोए नहीं?”

अब तो हद हो गई। इतना खुलकर कटाक्ष कर रही है। ऐसा जवाब देने का मन हुआ कि तिलमिला जाए।

“तुम ऐसा करोगी, मुझे उम्मीद नहीं थी।” गुस्सा बढ़कर खीझ में बदल गया था।

“तुम नहीं समझ सकते।”

“क्या नहीं समझ सकता? तुमने खुद कहा था इन्तजार करने को। मैं तो …. ”

‘इन्तजार कर रहा था…’ बोला नहीं गया। बोलकर स्वीकार करना अपने गर्व के विरुद्ध था।

“क्या तुम लड़कियों के बारे में कुछ भी कल्पना नहीं कर सकते?” उसने एक क्षण को जैसे रोष में मुझको देखा और दूसरी ओर मुड़ गई।

मैं उसे देखता रह गया। लड़कियों के बारे में क्या? क्या माँ बाप के कारण आने का मौका नहीं निकाल पाई? लेकिन यह तो पहले से ही था, फिर कल के लिए वादा कैसे कर गई?

समझ में नहीं आ रहा था, कहीं वो अभी….!

मैं जितना ही सोचने लगा उतनी ही उसकी सम्भावना अधिक लगने लगी। यही बात है। लड़कियों के बारे में और क्या कल्पना करने की बात हो सकती है? मैंने उसे गौर से देखा। मुझे उसकी चाल में एक ढीलेपन का एहसास हुआ। कल ही शुरु हुआ होगा।

मैंने क्या क्या सोच लिया था। खुद पर अफसोस हुआ। लेकिन भला मुझे इसका अनुमान कैसे हो सकता था।

वह झुकी हुई, जड़ के चारों ओर क्यारी चौड़ी करके उसमें पानी दे रही थी। मुझे लग रहा था उसकी हरकतों में एक सुस्ती है। हो सकता है यह मेरा भ्रम हो, वह एनर्जेटिक लड़की थी। फिर भी इस स्थिति में भी काम कर रही है।

मुझे उस पर दया आई। उसने अपनी उस हालत के बावजूद मुझसे पूछा था कि कैसे हो। वह धोखेबाज हरगिज नहीं हैं। अगर मेरे प्रति कुछ जवाबदेही नहीं महसूस करती तो क्या अपनी उस स्थिति का भी संकेत देती? बेहद भली लड़की है। मेरा मन उमड़ने लगा।

मगर पुष्पा का पुष्प ! अब कैसे देखूंगा। अभी उसका खयाल भी मुझे गंदा लगा। कहाँ तो सोचा था उसे चूम लूँगा। छी: ! तीन चार दिन तो ऐसे ही गए। उसके बाद भी तुरंत तो नहीं ही। मुझे वापस भी लौटना था। किस्मत ने बीच में ही आकर डंडा चला दिया था। यह मौका तो गया !

मैं उसके पास पहुँचा। उसके हाथ से पानी का बरतन लेने की कोशिश की। बिना किसी आनाकानी से मुझे उसने दे दिया। मुझे लगा कि बोलने के बाद से वह आहत महसूस कर रही है। लगा, वह भी वादा नहीं निभा पाने की मजबूरी महसूस कर रही है। इच्छा हुई कि कहूँ कोई बात नहीं, बाद में देखेंगे। लेकिन पता नहीं क्यों मुझे लगा कि बिना बोले ही मेरा आश्वासन उस तक पहुँच गया है।

वह उठी और आगे बढ़ गई। मैंने देखा, उसके पिताजी आ रहे थे। मेरे हाथ में बरतन देखकर हँसे,”पुष्पा आपको भी उलझा रही है?”

पूरा दिन सुस्ती भरा ही गुजरा। खाने और सोने के सिवा कोई काम नहीं था। पुष्पा कटी-कटी-सी रही। उस राज के जानने के बाद उसे मेरे सामने आना लज्जाजनक लगता होगा। मैं अब लौटने का कार्यक्रम बदलने की सोच रहा था। अब तो कुछ होगा नहीं।

पुष्पा का पुष्प ! अफसोस !

ऐसा नहीं कि मैं उसी के लिए आया था। चलते वक्त इसकी कोई कल्पना भी नहीं थी। यहाँ आकर परिस्थितियों के मोड़ से इतनी बड़ी बात की सम्भावना के बनने के बाद अब वही लक्ष्य बन गया था। उसके बिगड़ जाने के बाद खाली लग रहा था। कल सुबह ही लौट जाऊँगा। खिड़की के बाहर अंधेरी रात में आकाश में तारे दिख रहे थे और मैं सिर पर हाथ रखे लेटा सोच रहा था कि अभी मेरे तारे अनुकूल नहीं हैं।

बाहर कल की तरह सन्नाटा था, रात अधिक हो रही थी, नींद आज भी नहीं आ रही थी। यद्यपि आज किसी का इंतजार नहीं था। खिड़की से आती हवा में हल्की ठण्ड का एहसास हुआ लेकिन गुलाबों की आती खुशबू अच्छी लग रही थी। घड़ी में देखा- ग्यारह बज रहे थे…

कहानी जारी रहेगी।
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