केले का भोज-8

(Kele Ka Bhoj-8)

लीलाधर 2010-02-08 Comments

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वह फिर मुझ पर झुक गई। कम से कम आधा केला अभी अन्दर ही था।
‘खट खट खट !’… दरवाजे पर दस्तक हुई।
मैं सन्न। वे दोनों भी सन्न। यह क्या हुआ?
‘खट खट खट’… ‘सुरेश, दरवाजा खोलो।’

निर्मल उसके हॉस्टल से आया था। उसको मालूम था कि सुरेश यहाँ है।
किसी को समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे। लड़कियों के कमरे में लड़का घुसा हुआ और दरवाजा बंद? क्या कर रहे हैं वे !!
‘खट खट खट… क्या कर रहे हो तुम लोग?’

जल्दी खोलना जरूरी था। नेहा बोली- मैं देखती हूँ।’ सुरेश ने रोकना चाहा पर समय नहीं था। नेहा ने अपने बिस्तर की बेडशीट खींचकर मेरे उपर डाली और दरवाजे की ओर बढ़ गई। निर्मल नेहा की मित्र मंडली में काफी करीब था।

किवाड़ खोलते ही ‘बंद क्यों है?’ कहता निर्मल अन्दर आ गया। नेहा ने उसे दरवाजे पर ही रोककर बात करने की कोशिश की मगर वह ‘सुरेश बता रहा था निशा को कुछ परेशानी है?’ कहता हुआ भीतर घुस गया।

मुझे गुस्सा आया कि नेहा ने किवाड़ खोल क्यों दिया, बंद दरवाजे के पीछे से ही बात करके उसे टालने की कोशिश क्यों नहीं की।

उसकी नजर चादर के अन्दर मेरी बेढब ऊँची-नीची आकृति पर पड़ी।
‘यह क्या है?’उसने चादर खींच दी। सब कुछ नंगा, खुल गया… चादर को पकड़कर रोक भी नहीं पाई। उसकी आँखें फैल गर्इं।
मुझे काटो तो खून नहीं। कोई कुछ नहीं बोला। न नेहा, न मेरे नीचे दबा सुरेश, न मैं।

निर्मल ढिठाई से हँसा- तो यह परेशानी है निशा को… इसे तो मैं भी दूर कर सकता था।’ वह सुरेश की तरह जेंटलमैन नहीं था।
‘नहीं, यह परेशानी नहीं है !’ नेहा ने आगे बढ़कर टोका।
‘तो फिर?’
‘इसके अन्दर केला फँस गया है। देखते नहीं?’

सुरेश मेरे नीचे दुबका था। मेरे दोनों पाँव सहारे के लिए सुरेश की जांघों के दोनों तरफ बिस्तर पर जमे थे। टांगें समेटते ही गिर जाती। निर्मल बिना संकोच के कुछ देर वहाँ पर देखा। फिर उसने नजर उठाकर मुझे, फिर निशा को देखा। हम दोनों के मुँह पर केला लगा हुआ था। मुझे लग गया कि वह समझ गया है। व्यंग्य भरी हँसी से बोला- तो केले का भोज चल रहा है!!’ उंगली बढ़ाकर उसने मेरे मुँह पर लगे केले को पोछा और मेरी योनि की ओर इशारा करके बोला- इसमें पककर तो और स्वादिष्ट हो गया होगा?’

हममें से कौन भला क्या कहता?

‘मुझे भी खिलाओ।’ वह हमारे हवाइयाँ उड़ते चेहरे का मजा ले रहा था।

‘नहीं खिलाना चाहते? ठीक है, मैं चला जाता हूँ।’

रक्त शरीर से उठकर मेरे माथे में चला आया। बाहर जाकर यह बात फैला देगा। पता नही मैंने क्या कहा या किया कि नेहा ने निर्मल को पकड़कर रोक लिया। वह बिस्तर पर चढ़ी, मेरे पैरों को फैलाकर मेरी योनि में मुँह लगाकर चूसकर एक टुकड़ा काट ली। निर्मल ने उसे टोका, ‘मुँह में ही रखो, मैं वहीं से खाऊँगा।’ उसने नेहा का चेहरा अपनी ओर घुमा लिया।

दोनों के मुँह जुड़ गए।

यह सब क्या हो रहा था? मेरी आंखों के सामने दोनों एक-दूसरे के चेहरे को पकड़कर चूम चूस रहे थे। नेहा उसे खिला रही थी, वह खा रहा था।

निर्मल मुँह अलग कर बोला- आहाहा, क्या स्वाद है। दिव्य, सोमरस में डूबा, आहाहा, आहाहा… दो दो जगहों का।’ फिर मुँह जोड़ दिया।

दो दो जगहों का? हाँ, मेरी योनि और नेहा के मुख का। सोमरस। मेरी योनि की मुसाई गंध के सिवा उसमें नेहा के मुँह की ताजी गंध भी होगी। कैसा स्वाद होगा? छि: ! मैंने अपनी बेशर्मी के लिए खुद को डाँटा।

‘अब मुझे सीधे प्याले से ही खाने दो।’

नेहा हट गई। निर्मल उसकी जगह आ गया। मैंने न जाने कौन सेी हिम्मत जुटा ली थी। जब सब कुछ हो ही गया था तो अब लजाने के लिए क्या बाकी रहा था। मैंने उसे अपने मन की करने दिया। अंतिम छोटा-सा ही टुकड़ा अन्दर बचा था। अंतिम कौर।

‘मेरे लिए भी रहने देना।’ मेरे नीचे से सुरेश ने आवाज लगाई। अब तक उसमें हिम्मत आ गई थी।

‘तुम कैसे खाओगे? तुम तो फँसे हुए हो।’ निर्मल ने कहकहा लगाया- फँसे नहीं, धँसे हुए…’

नेहा ने बड़े अभिभावक की तरह हस्तक्षेप किया- निर्मल, तुम सुरेश की जगह लो। सुरेश को फ्री करो।’

क्या??

हैरानी से मेरा मुँह इतना बड़ा खुल गया। नेहा यह क्या कर रही है?

निर्मल ने झुककर मेरे खुले मुँह पर चुंबन लगाया- अब शोर मत करो।’

उसने जल्दी से बेल्ट की बकल खोली, पैंट उतारी। चड़ढी सामने बुरी तरह उभरी तनी हुई थी। उभरी जगह पर गीला दाग।

वह मेरे देखने को देखता हुआ मुसकुराया- अच्छी तरह देख लो।’ उसने चड्डी नीचे सरका दी। ‘यह रहा, कैसा है?’

इस बार डर और आश्चर्य से मेरा मुँह खुला रह गया।

वह बिस्तर पर चढ़ गया और मेरे खुले मुँह के सामने ले आया- लो, चखो।

मैंने मुँह घुमाना चाहा पर उसने पकड़ लिया- मैंने तुम्हारा वाला तो स्वाद लेकर खाया, तुम मेरा चखने से भी डरती हो?

मेरी स्थिति विकट थी, क्या करूँ, लाचार मैंने नेहा की ओर देखा, वह बोली- चिंता न करो। गो अहेड, अभी सब नहाए धोए हैं।

मुझे हिचकिचाते देखकर उसने मेरा माथा पकड़ा और उसके लिंग की ओर बढ़ा दिया।

निर्मल का लिंग सुरेश की अपेक्षा सख्त और मोटा था। उसके स्वभाव के अनुसार। मुँह में पहले स्पर्श में ही लिसलिसा नमकीन स्वाद भर गया। अधिक मात्रा में रिसा हुआ रस। मुझे वह अजीब तो नहीं लगा, क्योंकि सुरेश के बाद यह स्वाद और गंध अजनबी नहीं रह गए थे लेकिन अपनी असहायता और दुर्गति पर बेहद क्षोभ हो रहा था। मोटा लिंग मुँह में भर गया था। निर्मल उसे ढिठाई से मेरे गले के अन्दर ठेल रहा था। मुझे बार बार उबकाई आती। दम घुटने लगता। पर कमजोर नहीं दिखने की कोशिश में किए जा रही थी। नेहा प्यार से मेरे माथे पर हाथ फेर रही थी लेकिन साथ-साथ मेरी विवशता का आनन्द भी ले रही थी। जब जब निर्मल अन्दर ठेलता वह मेरे सिर को पीछे से रोककर सहारा देती। दोनों के चेहरे पर खुशी थी। नेहा हँस रही थी। मैं समझ रही थी उसने मुझे फँसाया है।

अंतत: निर्मल ने दया की। बाहर निकाला। आसन बदले जाने लगे। मुझे जिस तरह से तीनों किसी गुड़िया की तरह उठा उठाकर सेट करने लगे उससे मुझे बुरा लगा। मैंने विरोध करते हुए निर्मल को गुदा के अन्दर लेने से मना कर दिया- मार ही डालोगे क्या?’

मुझे सुरेश की ही वजह से अन्दर काफी दुख रहा था। निर्मल के से तो फट ही जाती। और मैं उस ढीठ को अन्दर लेकर पुरस्कृत भी नहीं करना चाहती थी।

केला इतनी देर में अन्दर ढीला भी हो गया था। जितना बचा था वह आसानी से सुरेश के मुँह में खिंच गया। वह स्वाद लेकर केले को खा रहा था। उसके चेहरे पर बच्चे की सी प्रसन्नता थी।

उसने नेहा की तरह मुझे फँसाया नहीं था, न ही निर्मल की तरह ढीठ बनकर मुझे भोगने की कोशिश की थी। उसने तो बल्कि आफर भी किया था कि मैं नहीं चाहती हूँ तो वह चला जाएगा। पहली बार वह मुझे तीनों में भला लगा।

कहानी जारी रहेगी।
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