वो तोहफा प्यारा सा -6

(Vo Tohfa Pyara Sa- Part 6)

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मैं अब शिवम की मदद करने की स्थिति में नहीं था, उसको अब अपना लक्ष्य खुद प्राप्त करना था।

शिवम ने ऊपर से ही श्वेता की गोरी लम्बी टांगों को अपनी जीह्वा से चाटना शुरू कर दिया।
उसके दोनों हाथ श्वेता की कामुक थरथराती पिंडलियों को सहलाने लगे।

कुछ ही पलों में श्वेता की चुनौती जवाब दे गई, उसने बेचैनी में अपनी टांगें इधर उधर फैंकना शुरू कर दिया।

बस उसी पल का फायदा उठाकर शिवम उसकी दोनों टांगें फैलाकर उनके बीच जा बैठा। अब श्वेता चाहकर भी दोबारा अपनी टांगों को इकट्ठा नहीं कर पा रही थी तो उसने अपने दोनों हाथों से योनिद्वार को ढक लिया।

पर शिवम भी कमजोर खिलाड़ी नहीं था, उसने अपने दोनों हाथों से श्वेता के दोनों हाथों को पकड़ा और अपनी गर्म तपती जीभ से श्वेता की दोनों टांगों की मध्य की कामुक लकीर को चाटने लगा।

उस लकीर के दोनों द्वार फड़फड़ाने लगे जैसे वो खुद ही शिवम का स्वागत करने को बेचैन हों।

श्वेता की योनि शिवम की ही बाट जोह रही थी। श्वेता किस दुनिया में थी यह बस वो ही समझ सकती थी उसने अपने हाथों को शिवम से छुड़ाकर कर अपने सिर के नीचे रखे सिरहाने को पकड़ का भींचने लगी।

अब शिवम का मार्ग एकदम साफ था।

सोनम मेरे पास से उठकर बराबर में बने स्नानागार में जाकर नहाने लगी पर मैं इस पल को अपनी नजरों से खोना नहीं चाहता था।
मेरी निगाहें लगातार उन दोनों के इस कामालाप पर ही केन्द्रित थी।

शिवम ने अपने एक हाथ की दो उंगलियों से श्वेता के योनिओष्ठों को एक दूसरे से अलग किया।
ऐसा लगा जैसा किसी गुलाबी महल की दरवाजा खुला हो।

श्वेता की योनि के अन्दर का गुलाबी नजारा देखकर शिवम जैसे पगला सा गया, उसने श्वेता की दोनों टांगों को उठाकर अपने कंधों पर रखा और अपना मुंह आगे करके अपनी जीभ श्वेता की योनि में सरका दी।

अब श्वेता में खुद को बचाने की हिम्मत नहीं बची थी, उसने अपने नितम्बों को उचकाकर शिवम की जीभ का स्वागत किया।
शिवम शायद इसी पल की प्रतीक्षा में था।

शिवम ने बराबर से एक तकिया लिया और श्वेता के नितम्बों के नीचे रख दिया।
अब तो श्वेता का योनिप्रदेश शिवम के एकदम सामने उठा हुआ प्रतीत हो रहा था, श्वेता के प्रफुल्लित योनिओष्ट की फड़फड़ाहट शिवम के कामदण्ड को अपने अन्दर समाने को बेचैन थी।

शिवम ने श्वेता के उस दैवीय द्वार में अपना लिंग सटा दिया।
‘हम्‍्बे म्म…’ की मादक आवाज के साथ श्वेता ने अंगड़ाई ली।

तब तक शिवम का लिंग मेरी प्यारी पत्नी के कामद्वार में पूरा प्रवेश कर चुका था जिसका तिलक आज से पहले सिर्फ मेरे ही लिंग द्रव्य से हुआ था।

शिवम ने पहले दो धक्के बहुत ही नाजुक अंदाज में लगाये और पूरा लिंग श्वेता के अन्दर सरका लिया।

पर उसके बाद अचानक शिवम एकदम जानवर बन गया, उसके धक्के इतने जोरदार थे कि श्वेता की आह… आह… पूरे कमरे में गूंजने लगी।

मैं जानता था कि यह आह… श्वेता को होने वाले सुखद कष्ट की पराकाष्ठा है।

शिवम की रफ्तार का यह आलम था कि उसकी गोटियाँ श्वेता के नितम्बों के नितले हिस्से पर लगातार टकरा रही थी, फचक… फचक… और आह… आह… की संगीतमय ध्वनि माहौल को अधिक आनन्द दायक बनाने लगी।

देखने में तो शिवम का लिंग मुझसे छोटा था पर उसकी मारक क्षमता देखकर तो मेरी भी पलकें झपकना भूल गई।
क्या हाल हो रहा होगा मेरी प्रियतमा का!
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जिस प्रकार श्वेता खुद लगातार कूल्हे उचका उचका कर शिवम का साथ दे रही थी। स्वयं कामदेव भी मंत्र मुग्ध होंगे मेरी कामदेवी की उस उग्रता को देखकर!

कुछ जोरदार झटकों के साथ ही शिवम ने अपना प्रेमद्रव्य श्वेता के अन्दर उड़ेल दिया।

शिवम बेजान सा श्वेता के बराबर में धड़ाम से जा गिरा, श्वेता भी एकदम शान्त हो गई, शिवम की सांसें धौंकनी की तरह तेज चल रही थी।

इधर श्वेता ने आँखें खोली।
मैं उस पल अपनी कामायिनी के चेहरे का तेज देखने के लिये उसके सामने जा पहुंचा।

एक ही पल में हम दोनों की नजरें मिली।
श्वेता के गुलाबी गालों पर एक प्यारी से मुस्कुराहट और उसने फिर से आँखें बन्द कर ली। इस बार उसकी आँखें जोश से नहीं बल्कि होश से बन्द हुई थी।

उसके चेहरे की हया मेरी खुशी को चार चांद लगा गई, मैं श्वेता की इस सुखमय तृप्ति से अति प्रफुल्लित था।

अब हम चारों में से किसी में भी और हिम्मेत नहीं बची थी तो सोना ही जरूरी समझा।

सोनम-शिवम ने वापस होटल जाने की जिद की तो मैंने उनकी बात का सम्मान करते हुए उनको होटल तक अपनी गाड़ी से छोड़ दिया।

वापस घर आया तो देखा मेरी प्रियतमा पूर्णनग्नावस्था में ही मेरी बाट जोह रही थी।

मैंने भी घर में कदम रखते ही सर्वप्रथम खुद को वस्त्रमुक्त किया और श्वेता को गले से लगाकर अपनी खुशी का व्यक्त की।

मैंने श्वेता से पूछा- खुश तो हो न जान?
श्वेता तो कुछ बोलना नहीं चाह रही थी पर उसकी शारीरिक भाषा उसको मिली सुखद अनुभूति की दास्तान ब्यान कर रही थी।

हम दोनों ने एक दूसरे को गले से लगाया, दोनों के बदन का एक दूसरे से मिलन नैसर्गिक सुख प्रदान करने वाला था।
थकावट की वजह से मैंने सीधे बिस्तर पर जाना ही ठीक समझा। पानी आदि की व्यवस्था के उपरान्त श्वेता भी बिस्तर में मेरी बगल में आ गई।

यूं तो श्वेता की चुप्पी सब कुछ बता रही थी पर मैं श्वे‍ता के शब्दों में उसका अनुभव जानने को बेचैन था।

मैंने पुनः श्वेता से वो ही सवाल किया और अपनी बेचैनी व्येक्त‍ की।

श्वेता ने बोलना शुरू किया:
शुरू शुरू में जब मैंने तुमको उस मोबाइल पर किसी से बात करते सुना तो मुझे बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगा था, मैं सोचती थी कि तुम्हारा कहीं किसी से कोई चक्कर है और तुम मुझे धोखा दे रहे हो।
और जब मैंने तुम्हारे जाने के बाद उस मोबाइल को जांचा तो मैं चौंक गई।
समझ ही नहीं पाई कि यह तुम किस दलदल में फंस गये हो। पर यह भी सच है कि जब मैंने वहाँ लोगों से बात की तो पाया कि वहाँ भी सभी लोग बुरे नहीं हैं बल्कि कुछ लोग तो बहुत अच्छे मित्र बने।

और ये भी समझा कि ये आवश्यक तो नहीं कि हम सदा तस्वीर का नकारात्ममक पहलू ही देखें। हर तस्वीर का दूसरा सकारात्म‍क पहलू भी हो होता है ना।
यही सोच कर मैंने कुछ आगे बढ़ने का फैसला लिया।

सबसे बड़ा फायदा यह हुआ कि मैंने खुद को संवारना सीखा।
तुम मेरे लिये नये नये कपड़े लाते, मैं तुम्हारे लिये अलग अलग तरीके से तैयार होती, तुम मेरी अलग अलग तरीके से फोटो लेते, खुश होते, अन्य लोगों को मेरी फोटो दिखाते, फिर वहाँ जब लोग मेरी तारीफ करते तो मैं बहुत खुश होती।
कभी कभी तो खुद पर फर्क महसूस होता।

और इस सब क्रिया कलाप से हम कब पति-पत्नि से अच्छे दोस्त बन गये पता ही नहीं चला।
तुम सदा मुझे खुश रखने की कोशिश करने लगे और मैं तुम्हें!
इस कारण मुझे ये सब कुछ थोड़ा अच्छा भी लगने लगा कि इस बहाने हम दोनों एक दूसरे के ज्यादा करीब आने लगे।

इस सबके बावजूद भी मुझे स्वैपिंग शब्द बुरा लगता था। क्योंकि स्वैपिंग को वहाँ पत्नियों की अदला बदली कहा गया है। पर अब मुझे समझ में आया कि स्वैप शब्द की जो परिभाषा बताई जाती है वो तो बिल्कुल ही गलत है।
यह तो सिर्फ दो खिलाड़ियों की अदला बदली है, जब हम एक ही खिलाड़ी के साथ लगातार खेलते रहते हैं तो हमारे खेल में न सिर्फ एकरसता आ जाती है बल्कि फीकापन आ जाता है, नीरसता आ जाती है जो हम दोनों के बीच भी तो आने लगी थी ना।

ऐसा खेल जिसमें किसी से कोई स्पर्धा नहीं, कोई चुनौती नहीं, यह खेल नहीं बल्कि हमारे जीवन में एक दैनिक कार्य जैसा हो गया था। इससे अधिक कुछ नहीं।
मुझे खुद को ही महसूस होने लगा था कि मैं ब्रह्माण्ड के इस सर्वश्रेण्ठ खेल की अच्छी खिलाड़ी नहीं हूँ। लेकिन आज जब मैंने इस खेल को खेला तो महसूस किया कि मैं गलत थी।
दरअसल हम खेल को सदा एक ही तरीके से एक ही खिलाड़ी से खेल रहे थे। इसलिये खेल का आनन्द खो गया था।
आज खिलाड़ी बदलते ही खेल में रोचकता आ गई।
खेल वही था फिर भी बिल्कुल नया लग रहा था। हालांकि मैं शुरू में इस परिवर्तन को स्वीकार नहीं करना चाहती थी पर अब लगता है कि मैं खेल को बहुत अच्छे से खेलती हूँ।
खेल में एक नयापन आया, उत्तेतजना थी, चंचलता थी।

और इस खेल को प्या‍र से जोड़ना तो बिल्कुकल ही गलत है, प्यार तो बहुत महान शब्द है।
प्यार जो जिस्मोंन को नहीं दो दिलों को जोड़ता है, दो रूहों को जोड़ता है।
जबकि यह खेल तो सिर्फ दो जिस्मों का खेल था, इससे तो हम दोनों के बीच में प्यार और विश्वास बढ़ा है।

मैं श्वे‍ता की इस तर्कज्ञान के सामने नतमस्तक था, मैंने कुछ भी बोलना उचित नहीं समझा, बस श्वेता को अपने गले से लगाया और सोने की कोशिश की।

तभी श्वेता ने एक वाक्य और भी कहा- और मैंने आपको जन्म दिन का एक ऐसा तोहफा भी तो देना था जो सिर्फ मैं ही दे सकती हूँ मेरे अलावा कोई नहीं। कैसा लगा मेरा तोहफा?
और बस मेरी आगोश में आँखें बन्द करके सो गई।

आपको यह कहानी कैसी लगी, मुझे जरूर लिखियेगा, आपके विचार ही मेरा उत्साहवर्धन करेंगे।
किसी भी प्रकार के विचार आप मुझे [email protected] पर मेल करें।

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