विदुषी की विनिमय-लीला-1

लीलाधर 2011-05-26 Comments

पाठकों से दो शब्द : यह कहानी अच्छी रुचि के और भाषाई संस्कार से संपन्न पाठकों के लिए है, उनके लिए नहीं जिन्हें गंदे शब्दों और फूहड़ वर्णन में मजा आता है। इसे लिखने में एक-एक शब्द पर मेहनत की गई है। यौन क्रिया के सारे गाढ़े रंग इसमें मिलेंगे, बस कहानी को मनोयोगपूर्वक पढ़ें।

लेखक : लीलाधर

जिस दिन मैंने अपने पति की जेब से वो कागज पकड़ा, मेरी आँखों के आगे अंधेरा छा गया। कम्‍प्‍यूटर का छपा कागज था। कोई ईमेल संदेश का प्रिंट।

“अरे ! यह क्या है?” मैंने अपने लापरवाह पति की कमीज धोने के लिए उसकी जेब खाली करते समय उसे देखा। किसी मिस्‍टर अनय को संबोधित थी। कुछ संदिग्‍ध-सी लग रही थी, इसलिए क्‍या लिखा है पढ़ने लगी।

अंग्रेजी मैं ज्यादा नहीं जानती फिर भी पढ़ते हुए उसमें से जो कुछ का आइडिया मिल रहा था वह किसी पहाड़ टूटकर गिरने से कम नहीं था।

कितनी भयानक बात !

आने दो शाम को !

मैं न रो पाई, न कुछ स्‍पष्‍ट रूप से सोच पाई कि शाम को आएँगे तो क्‍या पूछूँगी।

मैं इतनी गुस्‍से में थी कि शाम को जब वे आए तो उनसे कुछ नहीं बोली, बोली तो सिर्फ यह कि “ये लीजिए, आपकी कमीज में थी।” कहकर चिट्ठी पकड़ा दी।

वो एकदम से सिटपिटा गए, कुछ कह नहीं पाए, मेरा चेहरा देखने लगे।

शायद थाह ले रहे थे कि मैं उसे पढ़ चुकी हूँ या नहीं।

उम्‍मीद कर रहे थे कि अंग्रेजी में होने के कारण मैंने छोड़ दिया होगा।

मैं तरह-तरह के मनोभावों से गुजर रही थी। इतना सीधा-सादा सज्‍जन और विनम्र दिखने वाला मेरा पति यह कैसी हरकत कर रहा है? शादी के दस साल बाद !

क्‍या करूँ?

अगर किसी औरत के साथ चक्‍कर का मामला रहता तो हरगिज माफ नहीं करती। पर यहाँ मामला दूसरा था।औरत तो थी, मगर पति के साथ। और इनका खुद का भी मामला अजीब था।

रात को मैंने इन्‍हें हाथ तक नहीं लगाने दिया, ये भी खिंचे रहे।

मैं चाह रही थी कि ये मुझसे बोलें ! बताएँ, क्‍या बात है। मैं बीवी हूँ, मेरे प्रति जवाबदेही बनती है।

मैं ज्‍यादा देर तक मन में क्षोभ दबा नहीं सकती, तो अगले दिन गुस्‍सा फूट पड़ा।

ये बस सुनते रहे।

अंत में सिर्फ इतना बोले,”तुम्‍हें मेरे निजी कागजों को हाथ लगाने की क्‍या जरूरत थी? दूसरे की चिट्ठी नहीं पढ़नी चाहिए।”

मैं अवाक रह गई।

अगले आने वाले झंझावातों के क्रम में धीरे धीरे वास्‍तविकता की और इनके सोच और व्‍यवहार की कड़ियाँ जुड़ीं, मैं लगभग सदमे में रही, फिर हैरानी में।

हँसी भी आती यह आदमी इतना भुलककड़ और सीधा है कि अपनी चिट्ठी तक मुझसे नहीं छिपा सका और इसकी हिम्‍मत देखो, कितना बड़ा ख्‍वाब !

एक और शंका दिमाग में उठती- ईमेल का प्रिंट लेने और उसे घर लेकर आने की क्या जरूरत थी, वो तो ऐसे ही गुप्त और सुरक्षित रहता?

कहीं इन्होंने जानबूझकर तो ऐसा नहीं किया? कि मुझे उनके इरादे का खुद पता चल जाए, उन्हें मुँह से कहना नहीं पड़े?

जितना सोचती उतना ही लगता कि यही सच है। ओह, कैसी चतुराई थी !!

“तुम क्‍या चाहते हो?” , “मुझे तुमसे यह उम्‍मीद नहीं थी” , “मैं सोच भी नहीं सकती” , “तुम ऐसी मेरी इतनी वफादारी, दिल से किए गए प्‍यार का यही सिला दे रहे हो?” , “तुमने इतना बड़ा धक्‍का दिया है कि जिंदगीभर नहीं भूल पाऊँगी?”

मेरे तानों, शिकायतों को सुनते, झेलते ये एक ही स्‍पष्‍टीकरण देते,” मैं तुम्‍हें धोखा देने की सोच भी नहीं सकता। तुम मेरी जिंदगी हो, तुमसे बढ़कर कोई नहीं। अब क्‍या करूँ, मेरा मन ऐसा चाहता है। मैं किसी औरत से छिपकर संबंध तो नहीं बना रहा हूँ। मैं ऐसा चाहता ही नहीं। मैं तो तुम्‍हें चाहता हूँ।”

तिरस्‍कार से मेरा मन भर जाता। प्‍यार और वफादारी का यह कैसा दावा है?

“मैं तुम्‍हें विश्‍वास में लेकर ही करना चाहता हूँ। नहीं चाहती हो तो नहीं करूँगा।”

मैं जानती थी कि यह अंतिम बात सच नहीं थी। मैं तो नहीं ही चाहती थी, फिर ये यह काम क्‍यों कर रहे थे?

“मेरी सारी कल्‍पना तुम्‍हीं में समाई हैं। तुम्‍हें छोड़कर मैं सोच भी नहीं पाता।”

“यह धोखा नहीं है, तुम सोचकर देखो। छुपकर करता तो धोखा होता। मैं तो तुमको साथ लेकर चलना चाहता हूँ। आपस के विश्‍वास से हम कुछ भी कर सकते हैं।”

“हम संस्‍कारों से बहुत बंधे होते हैं, इसीलिए खुले मन से देख नहीं पाते। गौर से सोचो तो यह एक बहुत बड़े विश्‍वास की बात भी हो सकती है कि दूसरा पुरुष तुम्‍हें एंजाय करे और मुझे तुम्‍हें खोने का डर नहीं हो। पति-पत्‍नी अगर आपस में सहमत हों तो कुछ भी कर सकते हैं। अगर मुझे भरोसा न हो तो क्‍या मैं तुम्‍हें किसी दूसरे के साथ देख सकता हूँ?”

यह सब पोटने-फुसलाने वाली बातें थीं, मु्झे किसी तरह तैयार कर लेने की। मुझे यह बात ही बरदाश्‍त से बाहर लगती थी। मैं सोच ही नहीं सकती कि कोई गैर मर्द मेरे शरीर को हाथ भी लगाए। होंगी वे और औरतें जो इधर उधर फँसती, मुँह मारती चलती हैं।

पर बड़ी से बड़ी बात सुनते-सुनते सहने योग्‍य हो जाती है। मैं सुन लेती थी, अनिच्‍छा से। साफ तौर पर झगड़ नहीं पाती थी, ये इतना साफ तौर पर दबाव डालते ही नहीं थे। बस बीच-बीच में उसकी चर्चा छेड़ देना। उसमें आदेश नहीं रहता कि तुम ऐसा करो, बस ‘ऐसा हो सकता है’, ‘कोई जिद नहीं है, बस सोचकर देखो’, ‘बात ऐसी नही, वैसी है’, वगैरह वगैरह।

मैं देखती कि उच्‍च शिक्षित आदमी कैसे अपनी बुद्धि से भरमाने वाले तर्क गढ़ता है।

अपनी बातों को तर्क का आधार देते : ” पति-पत्‍नी में कितना भी प्रेम हो, सेक्‍स एक ही आदमी से धीरे धीरे एकरस हो ही जाता है। कितना भी प्रयोग कर ले, उसमें से रोमांच घट ही जाता है। ऐसा नहीं कि तुम मुझे नहीं अच्‍छी लगती हो, या मैं तुम्‍हें अच्‍छा नहीं लगता, जरूर, बहुत अच्‍छे लगते हैं, पर…”

“पर क्‍या?” मन में कहती सेक्‍स अच्‍छा नहीं लगता तो क्‍या दूसरे के पास चले जाएँगे? पर उस विनम्र आदमी की शालीनता मुझे भी मुखर होने से रोकती।

“कुछ नहीं…” अपने सामने दबते देखकर मुझे ढांढस मिलता, गर्व होता कि कि मेरा नैतिक पक्ष मजबूत है, मेरे अहम् को खुशी भी मिलती। पर औरत का दिल…. उन पर दया भी आती। अंदर से कितने परेशान हैं !

पुरुष ताकतवर है, तरह तरह से दबाव बनाता है। याचक बनना भी उनमें एक है। यही प्रस्‍ताव अगर मैं लेकर आती तो? कि मैं तुम्‍हारे साथ सोते सोते बोर हो गई हूँ, अब किसी दूसरे के साथ सोना चाहती हूँ, तो?

दिन, हफ्ते, महीने वर्ष गुजरते गए। कभी-कभी बहुत दिनों तक उसकी बात नहीं करते। तसल्‍ली होने लगती कि ये सुधर गए हैं।

लेकिन जल्‍दी ही भ्रम टूट जाता। धीरे-धीरे यह बात हमारी रतिक्रिया के प्रसंगों में रिसने लगी। मुझे चूमते हुए कहते, सोचो कि कोई दूसरा चूम रहा है। मेरे स्‍तनों, योनिप्रदेश से खेलते मुझे दूसरे पुरुष का ख्याल कराते। उस अनय नामक किसी दूसरी के पति का नाम लेते, जिससे इनका चिट्ठी संदेश वगैरह का लेना देना चल रहा था।

अब उत्‍तेजना तो हो ही जाती है, भले ही बुरा लगता हो।

मैं डाँटती, उनसे बदन छुड़ा लेती, पर अंतत: उत्‍तेजना मुझे जीत लेती। बुरा लगता कि शरीर से इतनी लाचार क्‍यों हो जाती हूँ।

कभी कभी उनकी बातों पर विश्‍वास करने का जी करता। सचमुच इसमें कहाँ धोखा है। सब कुछ तो एक-दूसरे के सामने खुला है। और यह अकेले अकेले लेने का स्‍वार्थी सुख तो नहीं है, इसमें तो दोनों को सुख लेना है।

पर दाम्‍पत्‍य जीवन की पारस्‍परिक निष्‍ठा इसमें कहाँ है?

तर्क‍-वितर्क, परम्‍परा से मिले संस्‍कारों, सुख की लालसा, वर्जित को करने का रोमांच, कितने ही तरह के स्‍त्री-मन के भय, गृहस्‍थी की आशंकाएँ आदि के बीच मैं डोलती रहती।

पढ़ते रहिएगा !

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