नवाजिश-ए-हुस्न-1

अलवी साहब 2013-04-03 Comments

लेखक : अलवी साहब

अन्तर्वासना के चाहको आपको प्यार भरा सलाम, नमस्ते !

और अन्तर्वासना की पाठिकाओ, आपके दर-ए-हुस्न पर मेरा अर्ज़-ए-सलाम कबूल हो !

दुनिया-ए-हकीकी में हमारा नाम फ़िरोज़ है, मगर दुनिया-ए-इश्क-मजाज में हमारा नाम ‘अल्वी साहब’ है, हर तलबगार-ए-इश्क और हर साहिबा-ए-हुस्न ने हमें इस लक़ब (पहचान) के साथ ही पहचाना है,

हमने बहुत कोशिश की ये राह-ए-इश्क छोड़ के माशरे की आम ज़िन्दगी बसर करूँ मगर यकीन जानें, ये हो न सका हमसे,

जैसे शराबी लाख चाह कर भी राह-ए-मयखाना छोड़ नहीं पाता,

उसी तरह हम हुस्न-कशी से बाज़ न आ पाए आज तक,

‘हुस्न की तासीर पर ग़ालिब न आ सकता था इल्म,

इतनी दानाई जहां के सारे दानाओं में न थी !’

दोस्तो, अपनी जवानी के आगाज़ से लेकर आज तक के चल रहे मेरे इश्क की दास्ताँ-ए-हक (सच) सुनाने हाज़िर हुआ हूँ, किसी भी किरदार का सच्चा नाम यहाँ न बता पाऊँगा, क्युंकि हर एक माशुका के साथ मैंने सच्चा इश्क किया है,

क़सम खुदा की ! चाहा तो था हर किसी को धोखा देना, मगर खुदा जाने क्या हरारत है मेरे लहू में और क्या फितरत है लहू में कि चाह कर भी धोखा न दे पाया किसी को !

‘इश्क की वारदात कुछ भी न थी,

बढ़ गई बात, बात कुछ भी न थी !’

तो अब कहानी पर आता हूँ, क्युंकि मैं भी एक पाठक हूँ इस साईट का और जानता हूँ कि लेखक जब शुरु में लम्बी लम्बी बातें करता है तब कितना गुस्सा आता है लेखक पर ! वैसे आप सबको मुझ पर गुस्सा न आएगा, इस बात का यकीन दिलाता हूँ।

तब मैं 18 साल का था, इस वक़्त 29 साल की उम्र है मेरी ! गुजरात राज्य के दरियाई किनारे पर मौजूद है एक शहर जिसका नाम है भावनगर ! यह शहर अपने आप में एक जिला भी है, भावनगर से सौ किमी दूर एक शहर महुवा है।

शादी वाले घर में पहुँचा, मेमानो के नाश्ते की जुस्तजू में लगे थे सब ! अफज़ल मुझे देख ख़ुशी से अपनी मुस्कराहट से मेरा इस्तेकबाल करता हुआ मुझे सीधे अपने भाई क बेडरूम में ले गया जहाँ वो लोग रूम की सजावट करने में लगे हुए थे क्योंकि आज रात ही सुहागरात का मौक़ा-ए-मुबारक था। वहाँ 4-5 लड़के थे। कुछ अफज़ल के दोस्त तो कुछ उसके बड़े भाई आरिफ, जिसकी शादी थी, के दोस्त !

उतने में आरिफ ने आवाज़ दी बाहर के रूम की जानिब, तो एक नौकरानी आई, आरिफ ने कहा- हम सबका नाश्ता भिजवा दो !

उस औरत ने कहा- मैं दूसरे काम में मसरूफ हूँ, किसी के हाथ भिजवाती हूँ कुछ देर में !

हम लोग आपस में मिल जुल रहे थे कि कुछ लम्हे में ही अफज़ल की बहन शाहीन आई हमारे लिए नाश्ता लेकर, दायरा-ए-तमीज़ का शलवार-कमीज़ और सर पर स्कार्फ लपेटा हुआ था उस रौनक-ए-महेफिल-ए-हुस्न ने, खूबसूरत इस दर्जा के मानो अपने आप में वो काफिला-ए-हुस्न साथ लिए चल रही हो !

नाश्ता मेत पर रखते हुए तिरछी निगाह-ए-करम से मुझे देखते हुए अपने आप से भी अपनी मुस्कराहट छुपाती हुई ही सही मगर मेरे सामने मुस्कुराई वो कहर की बला और अपने भाई से मुखातिब होते हुए मेरे तरफ इशारा करते हुए पूछा अफज़ल से- भाई, ये फ़िरोज़ हैं न आपके दोस्त?

बा-शऊर भाई की बा-शऊर बहन थी सो अपनी भाई की आँखों से सवाल पहचानते हुए जवाब में बोली- मैंने इनकी बहुत सी तस्वीरें आपके साथ देखी हुई हैं, और आपके मुँह से फ़िरोज़ की बहुत तारीफ़ भी सुनी है, क्यों सही पहचाना ना?

अफज़ल ने कहा- हाँ बहन !

अब वो बैठ कर हमें नाश्ता देने लगी, उसकी निगाहें मुसलसल मुझे निशाना बनाए हुए थी।

आपको बता दूँ मैं उस उम्र में भी 84 किलो का था और एकदम हट्टा कट्टा और आज भी उसी शान-ओ-शौकत पर बाकी हूँ।

उसकी आँखें मुझे कुछ कह रही थी, एक यलगार थी उसकी आँखों में, जिसमें वो शिकस्त देके अपना नज़र बंदी बना लेने की सलाहियत (केपेसिटी) रखती थी।

कुछ देर यही चलता रहा तो मुझे यकीं हुए जा रहा था कि इसकी आँखों में क्या है, मगर आखिर वो दोस्त की बहन थी, और मेरे लहू की केफियत ने ये नागवार पाया सो मैंने आँखे फेर ली क्योंकि धोखा मेरे लहू में नहीं !

दोस्त ने मुझे अपने भाई की शादी में महेमान की शक्ल में अपने घर की इज्ज़त बढ़ाने बुलाया था ना कि…

और हम तो इस समंदर-ए-हुस्न में जी रहे है, कौन सी कमी है इस दुनिया में हुस्न-जादियों की, जो ज़मीर को ज़ख्म-खुर्दा करके दोस्त की बहन पे हाथ डालता !

के

‘तू शाही है परवाज़ है काम तेरा, तेरे आगे आसमां और भी है !’

इतने में खबर आई कि लड़की वाले 30 किमी दूर हैं, महुवा शहर से बाहर बायपास रोड पे उन्हें लेने जाना था। दरअसल लड़की वाले अहमदाबाद से 2 बस लेके महुवा आ रहे थे तो अफज़ल अपनी बाईक निकालने लगा और मुझे कहने लगा- तू चल मेरे साथ !

मैंने कहा- मेरी कार से जाते हैं।

कार लेके हम पहुँच गए उस मकाम पर जहाँ से बस को शहर में दाखिल होना था। बस में से दुल्हन और उसकी तीन सहेलियाँ जो सय्यर भी थी उसकी, उन चारों को वहीं उतारा क्योंकि दुल्हन के तैयार होने के लिए होटल में एक रूम बुक किया हुआ था।

बस में बैठ कर अफज़ल चला गया था, दोनों बस चली गई थी, दुल्हन और उसकी सहेलियों को होटल के कमरे तक मुझे ले जाना था। दुल्हन और उसकी दो सहेलियों को पीछे बिठाया मेरी कार में, और बची एक जिसे शायद खुदा ने मेरे लिए ही भेजा था, बला की हसीं, उसे देखने के लिए मेरी आँखों की ताकत जवाब दी जा रही थी, दिल पे उसके हुस्न का कहर जब्र किए जा रहा था, मैंने अपने आप पर सब्र किया और अपनी ड्राइविंग सीट पर बैठा। पीछे दुल्हन और दो सहेलियों के बैठने से जगह न बची थी, कार में ए.सी चल रहा था तो शीशे बंन थे, मैं अब वो बाहर खड़ी परेशान थी कि आगे की सीट पर कैसे बैठूँ, मैंने स्विच प्रेस करके आगे की विंडो खोली और कहा- बस चली गई है और हम भी तक़रीबन निकल ही रहे हैं, आपको ऑटो कर दूँ या मेरे पास वाली सीट पर बैठने की ज़हेमत गवारा करेंगे?

मेरी इस बात पर पीछे तीन में से किसी एक की हंसी छुट गई और बोली- शहनाज़, बैठ जा, शरमा मत ! ये कोई गैर नहीं, अपनी अस्मा (दुल्हन का नाम) के देवर ही होंगे !

तो मैंने कहा- जी, मैं आरिफ का भाई तो नहीं मगर शहनाज़ इस बहाने बैठ रही है तो मुझे इस रिश्ते से कोई ऐतराज़ न होगा !!!

लाल रंग का लिबास पहने हुए थी शहनाज़ और ज्यों ही बैठी मेरी कार में वो तो महक उठी कार उसके बदन की खुशबू से !

उसके रुखसार इस कदर हसीं थे के बयां करने को मेरी ज़बान आजिज है।

ताकत-ए-गोयाई नहीं के बयान कर सकूँ उसके हुस्न-ए-सितम का मंज़र,

और आप सबको इस मंज़र-कशी का मुकम्मल तसव्वुर करवा सकूँ !

मगर जहाँ तक मुमकिन है कोशिश करता हूँ !

वो जैसे ही बैठी, मैं कार चलाने लगा और मैंने सबसे मुखातिब होते हुए कहा- जी मेरा नाम फ़िरोज़ है, मैं आरिफ के भाई का दोस्त हूँ, तो दुल्हन के साथ बैठी दोनों सहेलियों ने अपने तार्रुफ़ कराया।

मगर शहनाज़ चुप थी, तो मैंने कहा- आप दोनों ने तो अपनी पहचान दे दी, और दुल्हन तो अपने आप में एक पहचानी हुई हस्ती हैं,

मगर ये नूर की मलिका चुप है, कोई टेक्नीकल प्रोब्लम है या कुछ और?

ये बात मैंने पीछे की और रज़िया और रेहाना की तरफ मुखातिब होके कही तो वो दोनों बेसाख्ता हंसती हुई बोली- नहीं नहीं ! ऐसी बात नहीं ! वो आगे की सीट पे आपके पास बैठी है तो थोड़ी डिस्टर्ब और डरी हुई है शायद !

तो मैं सीधे शहनाज़ से मुखातब हुआ जैसे पुरानी पहचान हो !

यह मेरी खुसूसियत है, मैं अजनबियत से घबराता नहीं कभी, बहुत खुल के पेश आता हूँ अनजान से भी !

“हजरत-ए-शहनाज़ ! ये क्या कह रही है दोनों? क्या आप डरे हुए हैं मुझसे? जब के यहाँ खुद मेरा दिल हैबत से लरज़ चुका है आपकी खूबसूरती के कहर से ! और मेरी आँखे बर्दाश्त नहीं कर पा रही आपके जमाल का जलवा !”

तो शहनाज़ कुछ न बोली और सर झुका लिया। इतने में पीछे से रज़िया बोली- या अल्लाह ! ये तो मर मिटे शहनाज़ तुझपे !

तो शहनाज़ ने सर उठा के रजिया की ओर गुस्से से देखा मगर उसके गुस्से में दबी दबी सी ख़ुशी भी छलक रही थी।

इतने मैंने रजिया का सहारा लेते हुए रजिया से कहा- मेरी साँसें उलझ रही हैं इस हसीना के वजूद की मौजूदगी की असर से !

तो रज़िया बोली- हाय सदके जावाँ !

इतने में मैंने कार चलाते हुए रोड पे नज़र रखते हुए एक शेर पढ़ा:

‘सरापा हुस्न बन जाता है जिसके हुस्न का आशिक,

भला ए दिल, हसीं ऐसा भी है कोई हसीनों में?

खामोश ए दिल, भरी महफिल में चिल्लाना नहीं अच्छा, (ये मिसरा जोर से बोला)

अदब पहला करीना है, मोहब्बत के करीनों में !’

मेरे ये चार मिसरे ख़त्म करके मैंने सबसे पहले शहनाज़ की जानिब देखा, उसका सर त्यों ही नीचे झुका हुआ था। यह कहानी आप अन्तर्वासना डॉट कॉम पर पढ़ रहे हैं।

मगर इस मिसरों को सुन के वो हल्का हल्का सा मुस्कुरा रही थी और अन्दर ही अन्दर मेरे बारे में सोच रही थी:

‘ये कौन है, कहाँ से आया है, जो भी है, है दिलकश !

मैं सामने वाले के चेहरे की केफियत से काफी हद तक उसके मन की बात पढ़ लेता हूँ, ये खुदा की दी हुई सौगात है मुझे ! और पीछे से रजिया और रेहाना दोनों एक साथ बोली- माशा अल्लाह ! फ़िरोज़ !

और रज़िया बोली- शहनाज़, काश मैं आगे बैठती तेरी जगह !

तो मैंने अच्छा मौक़ा पाया शहनाज़ के दिल पे साज़िश-ए-इश्क का पहला वार करने का, मैंने कहा- रजिया फ़िर भी मेरा शेर तो शहनाज़ के लिए ही होता !

जगह बदलने से इरादे नहीं बदलते !

इतना सुनते ही शहनाज़ ने सर उठाया और मुस्कुरा दी, अजीब तरह से मेरी और रुख करके तो मैंने आगे के शीशे से आसमान की तरफ रुख करके कहा खुदा से:

ए वो खुदा जिसने इस हसीना के खद-ओ खाल तराशे,

तेरा शुक्र है ज़रूरी, के इसको तूने पैदा किया,

तेरा लाखों शुक्र के ये मेरी तरफ मुस्कुराई तो !

शहनाज़ फ़िर मुस्कुराई, इतने में रजिया ने उसके बाजू पे चुटकी ली- शहनाज़, मेरी जान, आहिस्ता, संभल के, कहीं ज़ख़्मी न कर दें ये साहब तुझे ! बहुत बड़े तीर अंदाज़ मालूम हो रहे हैं ये जनाब !

तो शहनाज़ रज़िया की तरफ सिर्फ मुस्कुरा दी, अभी तक एक लफ्ज़ न बोला था शहनाज़ ने, और मैं तरस रहा था उसके लबों से कुछ सुनने को, तो मैंने अब आम तौर-ओ-तरीके में बाते करनी शुरु की- शहनाज़, आप भी अहमदबाद से हैं?

तो उसने सिर्फ हाँ में सर हिलाया।

तो मैंने फ़िर एक वार किया, खुदा से मुखातिब होते हुए:

ए खुदा, इसकी खामोशी से मेरी ये हालत है तो

जब बोलेंगे तो क्या आलम होगा मेरे मजलूम दिल का?

और ये सुनते ही शहनाज़ मेरी तरफ देख के बोली- बड़ी दिलकश और प्यारी अदा है आपकी, क्या करते हैं आप?

मैंने जवाब सीधा देने की बजाए शेर में दिया:

‘न अपनी खबर है न दिल का पता है, न जाने मुझे तूने क्या कर दिया है !’

तो वो शरमा गई और चहेरा फेर लिया तो मैंने कहा- जी मैं पढ़ रहा हूँ।

फ़िर मैंने पूछा- और आप?

‘जी मैं पढ़ चुकी, अब घर की रोज़िन्दा ज़िन्दगी जी रही हूँ।”

ये सब लड़कियाँ 21-22 साल की थी और उन्हें अंदाजा न था के मैं सिर्फ 18 का हूँ क्योंकि मैं हट्टा-कट्टा जवां मर्द ही लगता हूँ 16 साल के बाद से !

और इतने में हम पहुँच गए और चारों को सही सलामत ऊपर उनके कमरे तक पहुँचाया, सामान अन्दर रखवाया, मैं दरवाज़े पे खड़ा हुआ था और जाने लगा तो रज़िया- बोली जा रहे हो?

मैंने कहा- शहनाज़ को छोड़ के जाने का दिल तो नहीं कर रहा मगर वो तो मुझसे ऐसे गाफिल है के जाना ही पड़ेगा यहाँ से मुझे !

कहानी जारी रहेगी !

शहनाज़ यह सुन कर उठी और आई मेरे पास दरवाज़े पे और बेखुदी की हालत में मुस्कुराते हुए बोली- मैं कहाँ गाफिल हूँ?

आप लोग मुझे मेल करें, मुझे बतायें कि मेरी मोहब्बत का अंदाज़ कैसा है?

कहानी जारी रहेगी !

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