एक और अहिल्या-1

(Ek Aur Ahilya- Part 1)

This story is part of a series:

मैं आपका दोस्त, राजवीर मिड्ढा फ़िर से आपकी खिदमत में हाज़िर हूँ जिंदगी की भाग-दौड़ में वाक़या एक नया अफसाना लेकर.
मेरी पिछली कहानियां पढ़ कर मुझे बहुत से मेल आये … बहुत से बोले तो कुल 1700 से एक दो ज्यादा ही. जिनमें से बहुत सारी मेल्स का मैंने पूरी ईमानदारी से जबाव भी दिया. अधिकतर तो तारीफ़ भरे थे तो थैंक्यू बोलने के सिवा और कुछ कहने लायक नहीं था.

पर कुछ में तो मेरे सुबुद्ध पाठकों के वाक़ई में लाज़बाब सुझाव थे या बहुत ही बुद्धिमत्तापूर्वक आलोचन. मैं दिल से शुक्रगुजार हूँ अपने ऐसे गुणीजन पाठकों का. लेकिन कुछ पाठकों ने अपनी मेल्स में मुझ से शिकायत की है कि मेरी कहानियों में स्त्री-पुरुष के गुप्तांगों का, प्रेम-आलापों का निहायत ही सभ्य शब्दावली में ही उल्लेख क्यों होता है, मैं भी औरों के जैसे अश्लील शब्दों का उपयोग क्यों नहीं करता.

तो मेरा जबाब यह है कि बंदानवाज़ … दरअसल काम-कथा में अश्लीलता का होना लेखक के संकुचित दृष्टिकोण और एक लेखक के तौर पर उस के सीमित सामर्थ्य को दर्शाता है, ऊपर वाले की मेहरबानी है कि मुझ पर ऐसा कोई आरोप नहीं. कहानी की मांग तो उत्तेज़क और कामुक होना होती है, अश्लील होना तो क़तई नहीं. काम तो कल्पना में ही विराजता है और कल्पना शुरू होती है आधे-अधूरे, ढके छुपे शब्दों से, अनजाने में सीने से ढलके आँचल से, तिरछी-नज़र से, सहज़-इशारे से, झुकती पलकों में अधूरे से इकरार से, महबूब के अपने निचले होंठ को दांतों से तिरछे काटने में. साफ़-साफ़ तो कुछ नहीं पर आधा-अधूरा तो पूरा त्रिभुवन. मेरे ख्याल से नंगी अश्लीलता वितृष्णा जगाती हैं, काम-उत्तेजना नहीं. बाकी अपनी-अपनी समझ और पसंद है.

दूसरे! मेरे बहुत सारे पाठकों को मुझ से शिकायत है कि मैं बहुत धीरे या कम लिखता हूँ … बोले तो! मेरी कहानियों के बीच में एक-एक साल से ज्यादा का अंतराल होता है. बंदा-परवर! मैं पहले भी अर्ज़ कर चुका हूँ कि लिखना मेरा शौक है, पेशा नहीं. अपनी और अपने परिवार के रोज़ी-रोटी कमाने को ईमानदाराना समय देने के बाद जो कभी-कभार कुछ समय मुझे अपने लिए मिलता है, उसी में मैं अपना शौक़ पूरा करता हूँ. मेरी कोशिश रहती है कि मैं कुछ अच्छा लिखूं, कुछ हट के लिखूं जो पढ़ने वालों को पसंद आये.

कई बार ऐसा हुआ कि मैंने अपनी किसी ख़ास तस्सुवर/तज़ुर्बे को पूरी मेहनत से पूरा या करीब-करीब पूरा कागज़ पर उतार लिया लेकिन जब खुद ही पूरा पढ़ा तो कुछ ख़ास जँचा नहीं तो मैंने फ़ौरन अ से अनार … आ से आम … से दोबारा लिखने का इरादा कर अपना पिछला लिखा सारे का सारा डिलीट कर दिया. तो गुस्ताखी की पेशगी माफ़ी की गर्ज़ के साथ अर्ज़ है कि इस फ्रंट पर इस से ज्यादा सुधार की कोई गुंजाईश … अभी तो नज़र नहीं आती.

मेरा अपने नये पाठकों से विनम्र निवेदन है कि कहानी से ठीक से तारतम्य बिठाने के लिए पहले मेरी पुरानी कहानियों को एक बार पढ़ लें. वैसे तो सारी कहानियां अपने-आप में सम्पूर्ण हैं, फिर भी पुरानी कहानियों पहले पढ़ लेने से आप को नयी कहानी का ज्यादा आनंद आयेगा, यूं नहीं भी पढ़ेंगे तो भी चलेगा.

!!अस्तु!!
!इति श्री पुरानी-कथा पुराण!

ख़ुशगवार अहसासों के जादुई रेशमी स्पर्श के बाद, हक़ीक़त की ख़ुरदरी सच्चाइयों का सामना करना वाकई में बहुत ही बेचैनी भरा होता है लेकिन इन सब के बीच जिंदगी मुतवातर अपने रास्ते पर आगे बढ़ती रहती है, मेरी भी बढ़ रही थी. जिंदगी के इस अनवरत प्रवाह में अभी बहुत सारे नए किस्सों ने आकार लेना है, अभी जाने कितने नये अफ़सानों की बुनियाद रखी जानी है, अभी कितनी जानी-अनजानी प्रेमगाथाओं ने मानव-इतिहास में अमर होना है लेकिन ये सब तो अभी नियति की कोख में भविष्य में सृजन होने की प्रक्रिया की कसौटी पर कसे जा रहे हैं.

प्रस्तुत कहानी ऐसी ही एक कथा का वर्णन है जिसका बीजारोपण तो अनजाने में कई साल पहले ही हो गया था लेकिन उस बीज़ को प्राणवायु प्रिया की शादी-समारोह में ही मिली. मेरी इस रचना में नायक-नायिका के मिलते ही काम-क्रिया में लिप्त हो जाना पसंद करने वाले पाठकों को वैसा ना हो पाने के सारांश में कोफ़्त तो बहुत होगी लेकिन जो पाठक काम-कथा में भावनात्मक और रचनात्मक आवेगों के गुण-ग्राहक हैं उन्हें ये कहानी खूब भायेगी … ऐसा मेरा विश्वास है.

एक बार फिर से अपने अफ़साने के सच्चा-झूठा होने का फैसला मैंने अपने पाठकों के विवेक पर छोड़ दिया है, अगर आप का मन इस को सच मानता है तो इसे सच जानें, अगर आपका मन इसको काल्पनिक मानता है तो इसे काल्पनिक ही मानें.
पेशे-ख़िदमत है एक अद्धभुत प्रेम-कथा के बीज के सालों पहले धूल-धूसरित होने और फिर कालांतर में उसमें से अंकुर पल्लवित होने से लेकर फ़ल के पकने और उस फ़ल की अद्धभुत लज़्ज़त चखने तक की … कच्चे-पक्के जज़्बातों और आधे-अधूरे अहसासों की पूरी दास्तान.

प्रिया से सपनों के साकार होने जैसे हसीन मिलन की रात के बाद से तो दिन ऐसे पंख लगा कर उड़े कि कब प्रिया की शादी सर पर आन पहुंची … पता ही नहीं चला. चूँकि मेरा घर प्रिया के मायके और ससुराल वाले घर के ऐन सेंटर में पड़ता था और शादी वाला होटल-कम-बैंक्वेट हॉल जोकि मेरे ही एक जानकार का था और जिसे मैंने बहुत कम पैसों में बुक करवा कर दिया था, वो भी मेरे घर से सिर्फ कोई एक-डेढ़ किलोमीटर दूर था. लिहाज़ा! प्रिया की शादी में सेंट्रल-पॉइंट मेरा ही घर था.

यूं तो मैं भाग-भाग कर जिम्मेवारी से प्रिया की शादी के काम निपटा रहा था लेकिन बार-बार मेरे दिल में प्रिया के मुझ से दूर चले जाने का सोच कर ही हूक़ सी उठती थी पर प्यार की रिवायत तो यही थी कि दिल का दर्द, दिल ही में रखना पड़ता है.
बकौल शायर ज़नाब सुदर्शन फ़ाकिर साहब
“होठों पे तबस्सुम हल्का-सा, आंखों में नमी सी ऐ ‘फ़ाकिर’ …
हम अहले-मुहब्बत पर अकसर ऐसे भी ज़माने आए हैं.”

प्रिया और मेरे सम्बन्धों के बारे में मेरी कहानी
हसीन गुनाह की लज़्ज़त-1
पढ़ें!

ख़ैर! प्रिया के पापा, यानि मेरे साढू भाई के स्वर्गीय ताऊ जी के एक बेटे बहुत सालों से शिमला में सेटल्ड थे. उम्र थी कोई पैंसठ साल लेकिन खूब तंदरुस्त और हट्टे-कट्टे. मिलिट्री से अर्ली रिटायरमेंट लेकर शिमला में ही सरकारी ठेकेदारी में जम कर पैसे कूट रहे थे.
उनके दो बेटे थे (दोनों शादीशुदा) और एक अविवाहित बेटी थी … कोई पैंतीस-छत्तीस साल की और नाम था वसुन्धरा! वसुन्धरा सुधा से दो-एक साल छोटी थी.

प्रिया के पापा के ये फर्स्ट कज़न साहब अपनी पत्नी और बेटी वसुन्धरा समेत प्रिया की शादी से तीन दिन पहले से ही मेरे ही घर में अड्डा जमाये हुए थे.
सुधा तो इन लोगों से पहले भी एक-आध बार मिल चुकी थी लेकिन मैं इन सबको पहली बार ही मिल रहा था. वसुन्धरा पंजाब यूनिवर्सिटी, चंडीगड़ से इंग्लिश लिट्रेचर में पी एच डी थी और डगशाई में किसी हाई-फ़ाई इंग्लिश स्कूल में वाईस-प्रिंसिपल थी.

डगशाई शिमला से कोई 60-62 किलोमीटर दूर सोलन ज़िले में एक छोटा सा, शांत सा हिल-स्टेशन है. चंडीगढ़-शिमला रोड पर धरमपुर से दायीं ओर साइड-रोड जाती है डगशाई को.

वहीं डगशाई में वसुन्धरा अकेली ही रहती थी. दीगर तौर पर महीने, डेढ़ महीने बाद वो शिमला चक्कर मार तो लेती थी लेकिन रहती डगशाई में ही थी … वो भी अकेली. पहाड़ी लोगों के विपरीत वसुन्धरा वैसे तो खुले-खुले हाथ-पैरों वाली, करीब 5’6″ लम्बी, गोरी-चिट्टी, क़दरतन एक खूबसूरत स्त्री थी लेकिन बन कर ऐसे रहती थी कि खुदा की पनाह! चेहरे पर कोई मेकअप नहीं, कोई क्रीम नहीं, होंठों पर कोई लिपस्टिक नहीं, भवों की कोई थ्रेडिंग नहीं, कोई नेल-पालिश नहीं, कोई मैनीक्योर-पैडीक्योर नहीं. शैम्पू-कंडीशनर से वसुन्धरा के सिर के बालों का शायद ही कभी वास्ता पड़ा हो.

वो सर में ढेर सारा तेल उड़ेल कर सारे बाल इस क़दर पीछे खींच कर चोटी करती थी कि … तौबा तौबा! माथे की सारी खाल दोनों भौहों समेत पीछे खिंच जाती थी. वसुन्धरा की दोनों कलाईयों पर ढ़ेरों बाल नुमाया थे तो यक़ीनन टांगों का भी यही हाल होगा. लगता था वसुन्धरा के लिए वैक्सिंग तो जैसे अभी ईज़ाद ही नहीं हुई थी … रही-सही कसर बोरीनुमा कपड़े की ड्रैस पहन कर निकलती थी.

ऊपर से कोढ़ में खाज़ की सी बात कि बला की दबंग, खुद-पसंद और बेहद बदतमीज़ थी. वसुन्धरा की भृकुटि हर वक़्त यूं तनी रहती कि जैसे उस की पेशानी पर स्थायी तौर पर 111 लिखा गया हो. हर किसी से उलझती थी. हर किसी को हर काम में “करो इसे नहीं तो …” वाली धौंस.
हर बात में मीन-मेख निकालना, हर शख़्स को बात-बात पर नीचा दिखाना वसुन्धरा का फुल-टाइम शुगल था.

यहां तो शादी वाला घर था, सौ तरह के काम थे. अब घरवाले हर मेहमान की पूंछ से चौबीसों घंटे तो नहीं बंधे रह सकते थे और वसुन्धरा थी कि बात-बात पर मुंह फुला लेती थी, हंगामा खड़ा कर देती थी.
उसकी मां उसको समझाती भी थी पर वसुन्धरा माने तब ना. एक मसला सुलझा नहीं कि दूसरा तैयार!

अब चूंकि घर मेरा था तो क़रीब-क़रीब सब बातों का नज़ला मुझ पर ही गिरता था. एक तो मुझ पर प्रिया की शादी के कामों की जिम्मेवारी, तिस पर प्रिया के मुझ से सदा के लिए दूर चले जाने का सदमा, ऊपर से इस वाहियात औरत के मुतवातार उलाहनों ने मेरा काफिया तंग कर रखा था.
पानी की टंकी खाली है, पिछली रात किसी ने मोटर नहीं चलाई तो जिम्मेवार मैं, प्रैस ठीक से गर्म नहीं हो रही तो जिम्मेवार मैं, बाथरूम में टूथ-पेस्ट नहीं मिल रही तो जिम्मेवार मैं, केटरर ने लंच लेट कर दिया तो जिम्मेवार मैं, किचन में कैचअप की बॉटल में कैचअप ख़त्म हो गया है तो जिम्मेवार मैं, कॉफ़ी में चीनी कम/ज्यादा तो जिम्मेवार मैं.
मेरे 9 साल के लड़के को चेकोस्लोवाकिआ के स्पैलिंग नहीं आते है तो जिम्मेवार मैं.
और तो और … एक दोपहर को एक घंटे का पावर-कट लग गया तो भी जिम्मेवार मैं …

हे भगवान! ऐसी खब्ती औरत मैंने जिंदगी में पहले न देखी थी. मेरे ही बैडरूम में, मेरे ही बेड पर अपनी माँ समेत अंदर से दरवाज़े लॉक कर के अगले दिन 8 बजे तक सोती थी और मैं बेचारा, सुबह-सबेरे बाथरूम जॉब्स निपटाने के लिए कभी बच्चों के रूम का दरवाज़ा खटखटाता, कभी गेस्ट रूम का. ऊपर से मोहतरमा तहज़ीब से ऐसी कोरी कि मैं और सुधा जैसे ही एकांत में बैठते तो घड़ी-घड़ी बिना दरवाज़ा नॉक किये दनदनाती हुयी बिना मतलब कमरे में आ घुसती. यूं तो मेरी और सुधा, दोनों की अंतरंग होने की ना तो कोई इच्छा होती, ना ही भरे-पूरे घर में ऐसा करने का कोई मौका होता लेकिन फिर भी वसुन्धरा का हम पति-पत्नी के बीच में बार-बार ऐसे काबिज़ होना तो अव्वल दर्ज़े का क़ाबिले-ऐतराज़ कुकर्म था. आते-जाते जब-जब मेरी निगाह उस से मिलती तो पूरी बेबाकी से मुझ से नज़र मिलाती और मुंह बिचका कर यूं होंठ चलाती जैसे मुझे कोस रही हो. दो दिन में ही मेरी बस करवा दी थी … उस कम्बख़्त सड़ी औरत ने.

प्रिया की शादी वाले दिन, 19 नवंबर वाली शाम को करीब 5 बजे सब घर-परिवार वाले होटल जाने को तैयार थे. जैसे ही घर से निकल कर सब अपनी-अपनी गाड़ियों में बैठे, वसुन्धरा मैडम ने हंगामा खड़ा कर दिया. मोहतरमा को पहले ब्यूटी-पॉर्लर जाना था … तैयार होने के लिए. यूं ब्यूटी-पॉर्लर था तो करीब एक किलोमीटर ही दूर लेकिन था शादी वाले होटल की एकदम उलटी दिशा में. दो घंटे पहले जब घर की बाकी की औरतें ब्यूटीपॉर्लर जा रही थी तो मैडम अपने लैपटॉप पर बिज़ी थी. अब इन्हें ब्यूटी-पॉर्लर जाना था और वहां जाने के लिए … मेमसाहब को एक शोफ़र-ड्रिवन कार चाहिए थी.

कारें तो कई खड़ी थी लेकिन समस्या ड्राईवर की थी, ड्राइवर कोई नहीं था. और कोई रास्ता न देख कर मैंने सुधा और बच्चों को किसी और की कार में एडजस्ट कर के होटल भेजा और खुद मैडम को ब्यूटीपॉर्लर ले जाने की कमांड संभाल ली. जब सुधा वाली कार नज़रों से ओझल हुई तो मैंने अपनी कार गेट पर लाकर खड़ी की और पोर्च में खड़ी वसुन्धरा को कार में बैठने को कहा और खुद घर में ताले लगाने अंदर चला गया. जी में तो आ रहा था कि तबियत से झाड़-झपड़ करूँ इसकी … लेकिन मेहमान थी, सो तहज़ीब का तकाज़ा था इसलिये चुप ही रहा मैं.

हालांकि मैं अंदर ही अंदर गुस्से में उबल रहा था लेकिन ऊपर से शांत दिखने की भरपूर कोशिश कर रहा था पर लगता था कि वसुन्धरा ने मेरा मूड भांप लिया था तो हाथ में शादी में पहनने वाले कपड़ों वाला मीडियम साइज़ का अटैची-केस ले कर चुपचाप कार की फ्रंट-पैसेंजर सीट पर आ बैठी. मैंने घर में तमाम जरूरी जगह ताले लगा कर मेनगेट बंद किया और कार की ड्राइविंग सीट संभाली.

अब हम दोनों को शादी वाले होटल की बिल्कुल उलटी दिशा में जाना था. पहली बार मैं और वसुन्धरा दोनों एकांत में इकट्ठे थे. मैंने कनखियों से वसुन्धरा की ओर देखा. गज़ब! वसुन्धरा के चेहरे पर तो हवाईयां उड़ रहीं थीं और जाने क्यों उसकी पेशानी पसीने से तर-ब-तर थी, नज़रें सहमी हुई हिरणी के मानिंद इधर-उधर भटक रही थी, कार की सीट के परले सिरे पर सिमट कर बैठी वसुन्धरा ने गोद में रखे हुऐ अटैची-केस का हैंडल दोनों हाथों से कस कर थाम रखा था.

सौ लोगों के हुज़ूम में अकेली दहाड़ने वाली शेरनी, ऐसे सहमी सी बैठी थी जैसे अदालत में एक ऐसा मुजरिम सहमा बैठा हो जिस को अभी … बस अगले ही पल सज़ा सुनाई जानी बाकी हो.

तभी मेरे दिमाग में बिजली सी कौंधी और एक ही पल में वसुन्धरा की झगड़ालू तबियत, सारी दबंगई, सारी बदतमीज़ी और इस वक़्त सहमी और छुई-मुई हो कर बैठी होने का राज़ समझ में आ गया. वसुन्धरा अहसास-ऐ-कमतरी का शिकार थी. अंग्रेज़ी भाषा में इन्फ़ीरियरिटी काम्प्लेक्स. इसी वजह से वो हर किसी को नीचा दिखाने की कोशिश करती रहती थी.
ख़ासी पढ़ी-लिखी थी तो अक्सर कामयाब भी रहती थी. यूं समझिये जैसे कि घोंघा … घोंघे का उपरी कवच बहुत सख़्त होता है, अक्सर दूसरे शिकारी जानवर घोंघे का कवच नहीं भेद पाते लेकिन बहुत सख़्त कवच के अंदर घोंघा बहुत ही नाज़ुक, बहुत ही कोमल होता है. यही हाल वसुन्धरा का था. रफ़-टफ़ अपीयरेंस, झगड़ालू तबियत, तमाम दबंगई, बदतमीज़ी और ब्रिटिश एक्सेंट में धारा-प्रवाह अंग्रेज़ी बोलना, ये सब वो सख़्त कवच थे जिनके पीछे एक नाज़ुक, छुई-मुई और सहमी सी वसुन्धरा विराजती थी और इस अलामत का कारण यक़ीनन वसुन्धरा का शादीशुदा ना होना था.

आज भी हमारे देश में अक्सर शादी के बाज़ार में जहां लड़कों की अहमियत का पैमाना सिर्फ उनकी पैसा कमाने की क़ूवत से नापा जाता है, वहीं लड़की की सिर्फ़ शारीरिक सुंदरता को तरज़ीह दी जाती है. लड़का चाहे +2 पास/फेल हो लेकिन अगर बिज़नेस में दो तीन लाख़ रुपया महीना कमाता हो तो उसको सी ए, एम बी ए, कॉलेज की प्रोफ़ेसर, यहां तक कि आई ए एस, पी सी एस लड़की भी आम मिल जाती है.

वर-वधू की कुंडलियाँ तो मिलाई जाती हैं लेकिन वर-वधू की मानसिक-अनुकूलता की किसी को कोई परवाह नहीं रहती. जो लड़कियां समझौता कर लेती हैं वो सारी उम्र अंदर ही अंदर कुढ़ती रहती हैं और जो लड़कियां विद्रोह करती हैं, उन लड़कियों की अमूमन शादी देर से या बहुत देर से होती है. बहुत ज़हीन, बहुत ज़्यादा पढ़ी-लिखी और आर्थिक तौर पर आत्मनिर्भर लड़कियों की ये प्रॉब्लम बहुत आम है.

अक्सर शादी में हो रही देर लड़कियों के मन में एहसास-ऐ-कमतरी यानि हीन भावना को जन्म देती है जो लड़कियों को या तो डिप्रेशन में ले जाती है या फिर दबंग और बद्तमीज़ बना देती है. वसुन्धरा को कुदरत ने या फिर खुद वसुन्धरा ने, दबंग और बद्तमीज़ बना दिया था लेकिन इस में एक लोचा था. जिन लोगों को ऐसी लड़कियों का अवचेतन मन पसंद करता है या जिन लोगों की ख्वाहिश करता है, उनको सबके बीच तो नीचा दिखाती है लेकिन उन लोगों के आगे एकांत में, बे-ध्यानी में ऐसी लड़कियों की सारी दबंगई और बदतमीज़ी का कवच एक ही क्षण में खील-खील हो जाता है.
सीधी-सादी भाषा में इस का यही मतलब निकलता था कि वसुन्धरा मन ही मन मुझे पसंद करती थी. पिछले तीन दिन में वसुन्धरा की मेरे साथ की सारी बद्तमीज़ियां और उनके कारण अब मुझे आईने की तरह साफ़ थे.

“हाँ … हाँ यही बात है!” वसुन्धरा के बारे में सोचते हुए और ख्यालों में उलझे हुए मेरे मुंह से ये शब्द निकल गए.
“आपने मुझसे कुछ कहा?” वसुन्धरा पहली बार मुझ से सीधे मुख़ातिब थी. हालांकि वसुन्धरा की पलकें तो झुकी हुई थी लेकिन आवाज़ में हल्की सी सत्तात्मक लरज़ बता रही थी कि शेरनी वापिस चैतन्य हो रही थी.
“जी नहीं! मैं कुछ सोच रहा था, बेख्याली में मेरे मुंह से कुछ लफ्ज़ निकल गए … सॉरी!” मुझे खुद ही अपनी आवाज़ बहुत नर्म, बहुत कोमल सी लगी.

मामले की जड़ समझ में आने पर अब मेरा वसुन्धरा के प्रति गुस्सा कम हो चुका था … कम क्या हो चुका था, ख़त्म ही हो चुका था.
मेरे लहज़े की असाधारण कोमलता को वसुन्धरा ने भी महसूस किया और चौंक कर मेरी ओर देखा. क्षण भर को निगाहों से निगाहें मिली, तत्काल ही वसुन्धरा ने अपनी आँखें झुका ली. मैंने भी अपनी निगाहें वापिस सामने सड़क पर जमा ली.

यूं मेरा इरादा मेरे हक़ में पलटी इन परिस्थितियों का कोई फायदा उठाने का क़तई नहीं था लेकिन किसी लड़की का … किसी गैर लड़की का अपने प्रति ऐसा अनुरागात्मक रवैया मन में कहीं गुदगुदी सी तो कर ही रहा था.
पुरुष दम्भ … ये तो है ही!
यक-बा-यक बिला-वज़ह ही फिज़ा खुशगवार सी हो चली थी और वसुन्धरा भी कुछ सहज़ सी दिखने लगी. वसुन्धरा के हाथ अब अटैची-केस के हैंडल से हट चुके थे और अब वो सहजता से सीट की पुश्त से पीठ लगाए, गोदी में रखे अटैची-केस पर अपने दोनों हाथ टिकाये बाएं हाथ की तर्जनी उंगली पर दायें हाथ से दुपट्टा लपेट-खोल रही थी.

“आई ऍम सॉरी!” अचानक ही सर नीचा कर के बैठी वसुन्धरा ने सरगोशी सी की.
“किस लिए?” मैंने पूछा, हांलाकि मुझे बिल्कुल ठीक-ठीक अंदाज़ा था कि वसुन्धरा किस बारे में बात कर रही थी.
“मैंने रंग में भंग डाला.” वसुन्धरा की आवाज में कंपन था.
“आप ऐसा क्यों सोचती हैं?” मैंने पूछा.
“क्योंकि … ऐसा ही है. मुझे पता है और मेरे कारण आप भी सज़ा भुगत रहें हैं.” कहते-कहते वसुन्धरा की नम आँखें ऊपर कार की छत की ओर उठ गयी और आवाज़ भर्रा गयी.
“वसुन्धरा जी! आप गलत सोच रहीं हैं. मैं कसम खा के कहता हूँ कि … आपका साथ मेरे लिए सज़ा नहीं, मस्सर्रत का वाईज़ है.”
वसुन्धरा ने बड़ी हैरतभरी नज़रों से मेरी ओर देखा और आँख मिलते ही मैं निर्दोष भाव से मुस्कुराया.

ख़ैर! बात ज्यादा हुई नहीं. मैंने वसुन्धरा को ब्यूटी-पार्लर के गेट पर उतारा और उसको “जैसे ही आप तैयार हो जायें, मुझे सैल पर कॉल कर दें, मैं आप को लेने आ जाऊंगा.” की हिदायत देकर वापिस शादी वाले होटल की ओर उड़ चला.
सब उलझनें सुलझ गयी थी लेकिन एक गिरह अभी भी नहीं खुली थी. क्या भा गया था वसुन्धरा को मुझमें? क्यों वसुन्धरा मुझे पसंद करने लगी थी? अभी जुम्मा-जुम्मा कुल दो ही दिन की तो मुलाक़ात थी हमारी और कोई मर्द चाहे कितने भी आकर्षक व्यक्तित्व का मालिक क्यों न हो, इतनी जल्दी तो कोई लड़की उस पर फ़िदा नहीं होती. ऊपर से मैं शादीशुदा, बाल-बच्चेदार आदमी, अपनी पत्नी के सिवा न तो किसी और स्त्री को किसी भी तरह के भविष्य की गारंटी दे सकता था और न ही किसी भी तरह के भावनात्मक-सम्बंध निभा सकता था. ये बात वसुन्धरा बड़ी अच्छी तरह से जानती थी … तो भी? चक्कर क्या था? कोई न कोई तो ऐसी बात जरूर थी जिस का अभी मुझे इल्म नहीं था, इसी उधेड़-बुन में डूबता-उतरता मैं शादी वाले होटल वापिस पहुँच गया.

लम्बी कहानी कई भागों में जारी रहेगी.
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