सुरीली साली-2

(Jija Sali Story: Sureeli Sali- Part 2)

लीलाधर 2017-12-24 Comments

कहानी का पहला भाग : सुरीली साली-1

हिरनी दो शेरों के बीच लेटी थी। भयभीत भी, किंतु खा लिए जाने के लिए इच्छुक भी। लेकिन मरने का आनन्द कितना सुहाना था! और नाइटी की बेहद झीनी ओट भला क्या सुरक्षा दे सकती थी, जिसके पार उसके अंगों का अंगों से संवाद साफ पहुँच जाता था। नाइटी के अंदर कोई न कोई ब्रा थी न पैंटी। पिंकी की त्वचा की हर बुनावट (टेक्स्चर) साफ महसूस होती थी। कंधों की कोमल कठोरता, गले की हँसुली पर की कठोरता, उभारों का मांसल, लचकीला भराव, पेट की नरम धँसान, तेज साँसों में पेट और वक्षों के ऊपर-नीचे होने की कोमल गति, जरा नीचे कठोर प्यूबिक बोन के ऊपर पेड़ू के कोमल गद्दे का उभार, जिस पर बालों की खुरदुरी रेगिस्तानी सतह, जिसमें आगे जाकर ढलान में निकलती भगोष्ठों की कटान… सबकुछ मेरी उंगली के पोरों से सीधे दिमाग तक संचरित हो रहे थे।

और इस सबसे ऊपर थी पतली साटिन की चिकनी नाइटी, जो पिंकी के शरीर में ढीली-ढीली बंधी उसके अंगों पर यूँ सरक रही थी जैसे खुद ही बीच से हट जाना चाहती हो। बनाने वाले ने भी क्या खूब उसे डिजाइन किया था; सामने दो परदे जो कलेजे और पेट पर एक के ऊपर एक लिपटते थे और ऊपर से कमर में एक डोर उनको बाँधे रखती थी।

मैं संयम में रहते हुए ही उसके ऊपर से पिंकी के अंगों की काट और फिनिशिंग का स्वाद ले रहा था। आने वाले प्रत्यक्ष स्पर्श की कल्पना पागल कर रही थी। जीजा सिर्फ पुरुष होने के कारण ही नहीं, सेक्स के अनुभव के कारण भी साली के लिए विशेष होता है। मुझे नए प्रेमी की तरह उतावली नहीं करनी थी। पिंकी के नाजुक मन को उसकी कमर में बंधी रेशमी डोर की तरह धीरे धीरे खोलना था। मैं प्यार भरी सहलाहटों से आगे बढ़ रहा था। पिंकी पूजा में शुरू होनेवाले हवन की तरह ही आग पकड़ेगी, बस धीरे धीरे फूँक देते जाना है। लेकिन कामानुभव के घी से लकड़ी की तरह सिंची उसकी देह आग पकड़ने में ज्यादा देर भी नहीं लगाएगी।

मैंने देखा कि ऊपर सुमन भी उसके बदन को सहला रही थी। शायद यह बहन के प्रति उसकी ममता थी। फिर भी मैं आश्चर्य किए बिना नहीं रह सका कि कहीं वह अपनी ही बहन के प्रति ही आकर्षित तो नहीं?
पिंकी के पेड़ू के नीचे होंठों के हवनकुंड में मैंने टटोला, घी की चिकनाई आने लगी थी। मैं उत्सुक था, बहुत उत्सुक, बहुत खुश।
मैंने पिंकी की गरदन के नीचे अपना बायाँ हाथ घुसा कर उसको अपने से सटा लिया। उसकी हकलाती हुई-सी “छ… छ… छोड़ दीजिए” की पुकार को अनसुना करते हुए अपना दायाँ हाथ, जो उसके पेड़ू के आसपास ऊपर ऊपर खेल रहा था, उसकी जाँघों के बीच धँसा दिया। पिंकी ने अपनी जांघें दबा लीं।

आह, उन जांघों का भरा-भरा गुदगुदा दबाव कितना मादक था! मेरी पत्नी की जांघें जहाँ अधिक मांसल थीं वहीं पिंकी की जाँघों में चिकनापन और कोमलता अधिक थी। मैं कुछ देर उस दबाव के सुख में डूबा रहा; फिर शरारत करते हुए अपनी तर्जनी उंगली की पोर, जो उसके भग-होंठों के बीच दब गई थी, उसे बहुत धीरे से कुरेदने लगा। होंठों के बीच से रिसती चिकनाई उंगलियों के पोरों पर आकर अगल-बगल फैलने लगी। कुछ ही क्षण बाद पिंकी की जांघें थरथराईं और अलग हो गईं, नशीली गंध हवा में तैर गई; पिंकी के योनि रस में अधिक गंध थी। मैंने उंगली उसके और अपने चेहरे के बीच लाकर उस गंध को सूंघा और फिर उसकी गर्दन पर साँस छोड़ते हुए बोला, “स्वीट स्मेल!”

शरम से उसकी जाँघें फिर सट गईं मगर मेरा हाथ उनके बीच जबरदस्ती घुस गया। रास्ता खोज चुकी उंगलियों ने उसके योनिद्वार पर दस्तक दे दी। कुछ ही पलों में जांघें फिर खुल गईं। खुलते ही मैंने फिर से कुरेदा। वे फिर भिंच गईं। कुछ देर तक मैं ऐसे ही उनसे खेलता रहा।
“ओह, जीजा जी!” अनायास ही उसने मेरी गरदन में मुँह घुसा दिया। मेरे कानों के पास उसके साँसों की आवाज गूंज रही थी। मुझे अपनी पीठ पर मेरी पत्नी का हाथ भी जैसे मेरी सफलता की शाबाशी देता घूम रहा था।

मैंने पिंकी की जाँघों के बीच से हाथ निकाल लिया और उसे उसकी बहन के साथ अपनी बाँहों में समेट लिया। दो दो औरतों का एक साथ आलिंगन… जिंदगी में पहली बार… मैंने दोनों को खूब जोर लगाकर चाँपा। दबाव से वे अँह अँह कर उठीं। मेरा लिंग, जो इतनी देर से खड़ा-खड़ा दुख-सा रहा था, एकदम से मचल गया, जैसे कह रहा हो – मुझे अभी ही चाहिए।

पिंकी की रजामंदी दिख रही थी, लेकिन मैं उठा और पिंकी के बदन के ऊपर से खिसकते हुए सुमन के ऊपर चला आया। मैरिज डे की रात पहले संभोग पर तो पत्नी का ही अधिकार बनता था। सुमन अभी सोच ही रही थी कि ये मैं क्या कर रहा हूँ, मैंने उसकी टांगें फैलाई और उसमें घुस गया। इरादा था कि सुमन पर अपनी अधीरता शांत कर लेने के बाद पिंकी को चैन से और प्यार से पहले संभोग का तोहफा दूंगा। उसको खूब गर्म करके, छोटे छोटे स्खलन कराते हुए अंत में लिंग घुसा कर बड़ा चरम सुख दूंगा।

पिंकी को झटका-सा लगा था। कहाँ तो वह मुझे अपने ऊपर आने की उम्मीद कर रही थी, कहाँ मैं उसकी बहन में घुस गया था। उसने सोचा भी नहीं था कभी अपने ठीक बगल में अपनी बहन को यूँ खुले चुदते देखेगी। मैं सुमन में जैसे जल्दी-जल्दी हथौड़े से कील ठोक रहा था। हर ठोकर के साथ उसकी हँच्च, हाँय.. निकल जाती थी। वह कब से गर्म और प्यासी थी; अगर पिंकी को उससे ठोकर न लग गई होती तो वह इस सुख को कब का पा चुकी होती। वह छटपटा रही थी और बहन की चिंता छोड़ नीचे से धक्के लगा रही थी।

मैं उसके चूचुकों को नाइटी के ऊपर से ही मसलता, होंठों के पीछे दाँतों से पकड़ने की कोशिश करता, हाथों से उसकी बाँहों, बगलों, पेट आदि को मसल रहा था – और कुछ बगल में लेटी साली को अपनी मर्दानगी दिखाने के खयाल से भी – जोर-जोर धक्के लगा रहा था। हालाँकि पिंकी जरूर कुछ उपेक्षित, कुछ अपमानित महसूस कर रही होगी, लेकिन थोड़ा तड़पा कर की गई रतिक्रीड़ा में उसे दुगुना मजा आएगा। पता चलेगा कि उसका जीजा क्या चीज है। वह मुझे हसरत से देखती भी रही है।

उत्साह के हिलोरों ने मुझे उछाल दिया; मैं चरम सुख के द्वार में प्रवेश कर गया और सुमन भी जोर-जोर उसी वेग से मेरे साथ स्खलित होने लगी। हम दोनों एक-दूसरे को बाँहों में कसे, लिंग और योनि को एक दूसरे पर रगड़ते हुए झड़ने लगे। पिंकी हैरान देख रही थी।

पिंकी खिसककर दूर चली गई। उसने सोचा, दीदी की वेडिंग डे है तो ठीक है वही करा ले, मैं क्यों कराऊँ। मैंने सुमन पर लेटते हुए पिंकी को भी समेटने की कोशिश की। सोचा, कोई बात नहीं, मन पर की चोट को लिंग की चोट से दूर कर दूंगा।

मैं हाँफ रहा था, लेकिन वीर्य के साथ जैसे मन की सारी बेचैनी भी लिंग के रास्ते बाहर निकल गई थी। पिंकी बगल में थी, मगर उसे पाने की अधीरता चली गई थी। बाहर इक्के-दुक्के कुत्ते के भौंकने की आवाज आ रही थी। रात शांत, सुंदर और नशीली थी। सुमन मेरी टांगों से अपनी टाँगें बाहर निकाल कर अपनी योनि पर रूमाल दबा रही थी। उसकी जाँघों पर चूता वीर्य मेरे पुरुष-कर्म की गवाही दे रही थी; मैं बेहद खुश था।

पिंकी – मेरे सपनों की रानी – अब मिलने ही वाली है। उसके गाढ़े यौवन में डूब-डूबकर स्नान करूंगा। मैं दिन भर देवी दुर्गा की विजय का उल्लास जताता ‘शुभो विजया’ सुनता रहा था। लेकिन मुझे लगा आज दुर्गा नहीं, महिषासुर के विजय की रात है। वह भी एक नहीं दो दो दुर्गाओं पर विजय की।

लिंग पर ठंडी हवा का स्पर्श महसूस हो रहा था। मैंने पिंकी की नाइटी खींचकर उसे ढकना चाहा, मगर पिंकी जस की तस लेटी रही। दो-तीन बार खींचने के बाद मैंने छोड़ दिया। मैं लेटा रहा – साँसों को समेटता, तृप्ति के अहसास में हूबा हुआ। वैसे भी पिंकी पर मेहनत के पूर्व मुझे लिंग को समय देने की जरूरत थी, हालाँकि यकीन था वक्त पर वह धोखा नहीं देगा।

पिंकी मेरी तरफ पीठ किए दूसरी तरफ मुड़ी हुई थी। मैंने उसकी बाँह पर हाथ रखा। उसने धीरे से मेरा हाथ पीछे ठेलकर उतार दिया। उपेक्षा के बावजूद मैंने बाँह सहलाना जारी रखा। अच्छा है, गुस्साई हुई औरत के सेक्स में ज्यादा गर्मी होती है।

मैंने उसकी गरदन को चूमने की कोशिश की, मगर उसने सिकोड़ ली। मैंने उसकी बालों की जड़ में मुँह घुसा कर उसमें होंठ फिराए। इस बीच उसकी बाँह पर अपना हाथ आगे बढ़ाकर उसके एक स्तन पर ले आया। उसने मेरा हाथ हटाया और मेरी तरफ घूमकर बोली – छोड़िए मुझे!”
साफ आवाज, जिसे सुमन ने भी नोटिस किया। मैं स्थिर हो गया। पता नहीं सुमन इसे किस तरह लेगी। वह उठी और जांघों के बीच रूमाल पकड़े बाथरूम चली गई। शायद उसे पिंकी का बुरा मानना बुरा लगा था।

मैं उठकर बैठ गया और पिंकी पर झुककर उसके चेहरे को दोनों हथेलियों में पकड़ लिया। उस पर अपने होंठ रगड़ कर चुम्मे दिए। उसके विरोध करते हाथों को मैंने अपने एक-एक हाथ में पकड़ा और अपनी एक कुहनी के सहारे उस पर चढ़ गया। उसकी टांगों को अपने दोनों पैरों में समेटा और अपने वजन से उसे दबा दिया। इस कुश्ती में उसके कोमल अंगों की रगड़ खाकर मेरा लिंग सख्त होने लगा।
वह चेहरा घुमाकर मेरी चूमने की कोशिशों को बेकार कर दे रही थी। मैंने उसके मुँह को छोड़ा और चूमते हुए नीचे खिसकने लगा। उसकी ठुड्डी, कंठ, गले से उतरता हुआ उभारों पर आ गया। वह नहीं नहीं कर रही थी मगर पतली नाइटी में सख्त चूचुक उभर गए थे। क्रोध के बीच उत्तेजना का संकेत – बादलों की गड़गड़ाहट के बीच जैसे मंदिर की घंटी की आवाज। वह कंधे उचकाती तो मेरा सिर स्तनों में दब-दब जाता। मैं चूचुकों के अगल-बगल और सीधे उनको भी चूमता, उन्हें फिसलनदार साटिन कपड़े के ऊपर से ही होठों के बीच पकड़ने की कोशिश करता।

मैं अचानक से ऊपर खिसका और फिर से उसके होठों से अपने होंठ जोड़ दिए।
उम… उम… उम… करती वह लड़ रही थी, लेकिन मैंने उसका निचला होठ दाँतों में पकड़ लिया और चूसने लगा। साथ में अपना आधा सख्त लिंग भी उसके पेड़ू पर दबाकर रगड़ने लगा। एक अच्छे नस्ल का स्त्री शरीर इन मनुहारों को अनसुना नहीं कर सकता। और इसमें क्या शक था कि मेरी साली मेरी पत्नी की ही तरह अच्छे नस्ल की थी।
एक सुगंधित, कम चिपचिपी लार जो उसके मुँह से मेरे मुँह में बरस रही थी। अधिक मिठास लिए – शायद वह रोज सुबह जो बहुत मीठी चाय पीती थी उसका असर। (वह मीठा बहुत पसंद करती थी।)

उसका ध्यान हटा देखकर मैंने उसका एक हाथ छोड़ा और उसकी कमर में टटोलकर नाइटी की रस्सी खोल दी। वह कुछ चैतन्य हुई मगर मैंने ऊपरी पल्ले के अंदर हाथ घुसाकर दूसरे पल्ले की रस्सी भी खोल दी। दोनों पल्ले आजाद हो गए।
पता नहीं क्यों इस सफलता पर मुझे हँसी आ गई; मैंने उसके कान में फुसफुसाकर कहा- “जय जवान, जय किसान!”
सुमन की याद आई। वह गंभीर क्षणों में भी मेरी मजाक की आदत को जानती थी। मैंने बाथरूम की ओर नजर डाली; दरवाजा बंद था।

मैंने हाथ घुसाकर पिंकी के एक स्तन पर कब्जा किया। उसने मेरा हाथ पकड़ लिया – छोड़िए मुझे!
“लो छोड़ दिया।” मैंने कहा और उठ कर बैठ गया। छोड़ने से पहले उस स्तन को और अच्छे से सहला दिया।
वह मुझे देखती रह गई। उसे दुविधा में पड़ी देख मैंने नाइटी के दोनों पल्ले पकड़े और पूछा, “इसको खोलूँ?”
“नहीं, नहीं!” हड़बड़ाकर उसने दोनों हाथ सीने पर दबा लिये।
“ठीक है।” मैं उतरा और बगल में बैठ गया। वह भी उठने लगी। मैंने उसके सीने को हाथ से दबाकर लेटे रहने के लिए मजबूर किया और खुद उसकी तरफ पीठ करके घूम गया। अब मेरे सामने थी उसके पाँवों की कोमल गुद्दी, जिसको मैंने सुबह चूमने की कल्पना की थी।
“जीजाजी, ये क्या कर रहे हैं?” वह पाँव खींचने लगी। मैंने उसके पाँवों को बाँहों में दबाया और चूमने लगा – तलवे, टखने, एड़ियाँ, पिंडलियाँ, घुटने… ऊपर जाँघों की ओर।
जो मैं करने जा रहा था वह सुमन को बहुत पसंद थी। सुमन बाथरूप का आधा पल्ला खोले खड़ी थी।

जांघों की संधि-रेखा – औरत के शरीर में पुरुष की मंजिल! पिंकी वहाँ नाइटी को दोनों हाथों से दबाए थी। किंतु इससे उसकी छातियाँ असुरक्षित रह गई थीं। मैंने उन पर हाथ लगाया। जैसे ही उसने स्तन बचाने के लिए हाथ उठाया, मैंने उसके पेड़ू पर जमा एकमात्र हाथ खींचकर हटा दिया। हाथ के साथ नाइटी भी खिसक गई और नंगा योनि-प्रदेश प्रकट हो गया। मैं उस पर झुक गया।
वह जाँघें कसकर चिपकाए थी। उनके बीच भग-होंठ बंद थे। मैंने उसके नितम्बों को बाँहों में घेरा और भगों का उभार जितना हासिल हो सका उसी को चूमने-चाटने लगा। वह दाएँ-बाएँ पलटती बचने की कोशिश कर रही थी।

मैंने चूतड़ों के नीचे हाथ घुसाया और जोर लगा कर दोनों जांघों को अलग कर दिया। तेज गंध का एक झोंका मेरे नथुनों में आया और मैंने रसीले आम की फाँकों पर मुँह लगा दिया। रोमरहित चिकनी, रस से छलछलाती फाँकें।
वह एकदम से उछल पड़ी- जीजा जी, हटिए-हटिए, ये क्या कर रहे हैं।
जिस तरह से वह रोक रही थी उससे लग रहा था वह मौखिक रति के सुख से अपरिचित थी। शायद कुणाल उसे उसे यह मजा नहीं देते थे। मैं जल्दी जल्दी चाटने लगा। वह उछलने लगी और हाथों से मेरा सिर ठेलने लगी, “छी छी जीजा जी, ये क्या कर रहे हैं… ओफ… ओफ… ये क्या कर रहे हैं जीजाजी… ओफ जीजाजी…”
मैंने जीभ से टटोल कर उसका छेद खोज लिया था और उसके द्वार को गुदगुदा रहा था। मेरे बदन पर उसके कोमल अंगों की रगड़ मेरा आनन्द बढ़ा रही थी।

जल्दी ही उसकी जीजाजी जीजाजी की पुकारें विरोध की बजाए बुलावे में बदलने लगीं। कमर का उचकना दूर जाने की बजाय मुँह से और जुड़ने के लिए होने लगा। मैंने हाथों को उसके नितंबों के नीचे से निकाला और उसके घुटने फैलाकर उंगलियों से दोनों भग-होंठों को अलगा दिया। सिर झुकाकर उन होठों पर अपना मुंह लगाया और जीभ को नुकीला करके सुराख के अंदर घुसा दिया।
छी.ऽ..ऽ..ऽ… की चीख गूंजी लेकिन बीच में ही मेरे कान उसकी जाँघों से बंद हो गए। मैंने भगनासा की घुंडी होंठों में कसी और हल्का सा चबा लिया। वह ऐसे थरथराने लगी जैसे करंट लगा हो। मेरी जाँघ में उसने इतना कस के दाँत गड़ाए कि मैं दर्द से बिलबिला गया। किंतु इस दर्द के बावजूद मैं उसे इतना अच्छा मौखिक रति-सुख देने के गर्व से भर गया।

वह कमर उचकाकर मेरे सिर को अपनी गोद में दबा रही थी। अब मैं चाहता तो चुदाई शुरु कर सकता था। झड़ती हुई योनि में लिंग प्रवेश पागल कर देने वाला होता है लेकिन मैं चाहता था मुख-रति का सुख वह देर तक पाए। मैंने गति धीमी कर दी, सिर्फ भगनासा (क्लिटोरिस) को धीरे-धीरे जीभ से छेड़ने लगा।
पिंकी को मेरा पहला उपहार – पहले स्खलन का, कठोर लिंग की अपेक्षा कोमल जीभ से। उसके प्रति मेरे मन में बेहद कोमल भाव का प्रतिदान। मैं उठा और उसे जीत लेने के गर्व से सीधे उसके मुँह को चूमा। चरम सुख पाने की कृतज्ञता में उसने योनि के रस लगे मेरे मुँह का बुरा नहीं माना, मेरे चुम्बनों को बिल्कुल औरत की तरह विनम्रता से, मान जाने के भाव से ग्रहण किया। मैंने उसे गले लगा लिया।

सुमन आकर हमारे पास बैठ गई। मैंने उसे अपने पास खींचा और एक गाढ़ा चुम्बन दिया। उसी ने मुझे यह अनमोल उपहार दिया था। मुझे आश्चर्य हुआ कि उसने मेरे मुँह पर लगे पिंकी के रस की परवाह नहीं की और उत्तर दिया।
पुनः पिंकी की ओर मुड़ा तो वह मुँह घुमाने लगी। आलिंगन में लेने लगा तो बदन सख्त करने लगी। शायद सुमन को चूमने पर फिर उसे अपनी उपेक्षा याद आ गई थी। वह बहन से प्रतियोगिता महसूस कर रही थी। मैंने उसे जलाने के लिए सुमन को और देर तक गले से लगाए रखा।
सुमन ने मेरा लिंग टटोला, “इतनी जल्दी खड़ा हो गया?”
“Ever ready for Pinki.”

इस बार सुमन नहीं सकुचाई। उसने हँसकर लिंग को सहला दिया और उसे थपथपाकर मुझे पिंकी की ओर ठेल दिया। मैं निहाल हो गया।
पिंकी दूसरी तरफ करवट ले रही थी, मैं उसे पकड़कर उसके ऊपर चढ़ गया। इस लड़की में जो भी अकड़ बची है, ठुकाई से ही जाएगी। एक बड़े इंजेक्शन की सुई की तरह लिंग को हाथ में पकड़ा और उसकी जांघों के बीच घुसाने लगा। अच्छा लगता यदि वह स्वेच्छा से, सहयोग करती हुई संभोग में उतरती। लेकिन चलो यही सही।
“ना-ना-ना…” वह जाँघें कसने लगी। हालाँकि बड़ी बहन का लिहाज करती हुई आवाज धीमी रखी।
“हाँ-हाँ-हाँ…” मैंने उसी लय में उत्तर दिया। “फिर से जबरदस्ती करवाकर ज्यादा मजा लेने का मन है क्या?”
वह शरमा गई। उसी क्षण की कमजोरी का फायदा उठाते हुए मैंने उसके पाँव अलगा दिए और अपना घुटना बीच में अड़ा दिया। मुझसे संघर्ष का परिणाम अभी कुछ देर पहले भी देख चुकी थी। मैंने दूसरा घुटना भी बीच में डाला तो वह ज्यादा जोर नहीं लगा पाई।

अब कील को ठोकने के लिए स्थिति अनुकूल थी। मैंने उसकी धड़ के दोनों तरफ हाथ टिकाए और उस पर झुकने लगा। लिंग सीधे भग-होठों के बीच जा लगा। अभी ऊपर सूखा था, इसलिए चिपक कर अटक रहा था। मैंने थोड़ा थूक निकालकर होठों पर लगा दिया। चिकना होते ही लिंग फिसलकर होंठों के पार हो गया।
मैं झुकता हुआ पिंकी के सीने पर सो गया। पिंकी की चंचलता और उसके भग होठों के अंदर की चिकनाई ने स्वतः ही लिंग को द्वार पर पहुँच गया और वह एक कुशल गोताखोर की तरह नीचे उतरने लगा।
“ओफ्फ, नो…!”
धीरे धीरे पेट से पेट, पेड़ू से पेड़ू सट गए। देख कर अंदाजा करना मुश्किल था दोनों के बीच कोई मोटी और लम्बी चीज घुसी हुई है। वह अचकचाई सी मुझे देख रही थी। उसकी नजर वहीं चली गई जहाँ हम एक-दूसरे से जुड़े थे।
“बोलो, कैसा लग रहा है?” मैंने हँसते हुए पूछा।
मुझे देखती देखती उसकी आँखें मुंद गईं। हालाँकि मुँह से अस्फुट ना-ना-ना निकल रही थी। मैं मुग्ध-सा उसके चेहरे को देख रहा था। योनि तंग थी और लिंग चौड़ा। मिलनेवाले आनन्द को इन्कार कर सकने की गुंजाइश नहीं थी।

जैसे ही उसने पलकें उठाईं, मैंने एक धक्का दिया।
“हाऽऽऽऽ…”उसकी छूटती साँस में मिली हुई आवाज आई। धक्के से उसका सिर ऊपर की ओर उठ गया और मैंने उसकी उठ गई ठुड्डी को अपने होठों से छू लिया। बेचारी! मैं उस पर जबरदस्ती कर रहा था। पर उतना विरोध तो स्त्री का अलंकार है। और उस विरोध को रौंदना पुरुष का अधिकार!
लिंग पर उसके कोमल मांसपेशियों की ऐसी आतुर पकड़, कि उसे अपने से सरकने भी न देना चाहती हों। मन भले ही ना कर रहा हो पर शरीर से शरीर मिलकर एक हो जाने की ऐसी पागल चाहत। क्या यही प्यार है? मैंने खुशी से एक धक्का और दिया।
“ना… ना… ना… आऽऽऽऽह… आऽऽऽऽह!”

सुमन अपने सामने कोई सेक्स होता पहली बार देख रही थी। उसका पति और उसकी बहन! दोनों ही अपने। क्या सोच रही है? मैंने उसका हाथ पकड़ कर पिंकी के स्तनों पर रखने की कोशिश की। पिंकी उन्हें हटाने लगी तो मैंने उसकी कलाइयाँ पकड़ लीं।
“उँह… उम्म्म्ह…” पिंकी ने फिर जोर लगाया।
मैंने उसको काबू में रखते हुए कमर चलाना शुरू किया। पहले पेड़ू से पेड़ू की रगड़, ताकि भग-क्षेत्र की सारी नसें रगड़ खाकर संवेदनशील हो जाएँ। उसके बाद एक धक्का, फिर पेड़ू की रगड़। हर रगड़ पहले की अपेक्षा कठोर। जैसे उसके भग-होठों को लिंग की जड़ से ही फाड़ देने की कोशिश।
“दीदी…” पिंकी ने जैसे बहन से सहायता मांगी। उत्तर मैंने दिया, कमर से एक जोर की थाप देकर – ‘थप!’
उसके गले से ‘हँक’ की आवाज निकली। मुझे उसकी बातें नहीं, कराहटें सुनने को चाहिए थीं। मैंने धक्के चालू कर दिये। सहलाने, रगड़ने का कोमल संभोग बहुत हो गया, अब चाहिए असल मर्द की चोटें।
“ओह… ओह… ओह… ओह…!” पिंकी का कोमल कंठ-स्वर!
“ना-ना-ना…!” मैंने पिंकी की नकल उतारी और फिर एक एक धक्के के साथ उसका जवाब देने लगा, “हाँ-हाँ-हाँ… थप-थप-थप…!”
सुमन हँस पड़ी, उसने मेरा कान मरोड़ा, “शरारती…!”

पिंकी की सीत्कारें शुरू हो गईं। कमर उचकाने लगी। मैं उसकी हर उचक को चाँप देता था। भगनासा का नुकीला सा दाना हर धक्के में चोट खाता था और पिंकी को जैसे हवा में दो हाथ और ऊपर उछाल देता था।
साली के नितम्ब मेरी पत्नी से घेरे में कम थे मगर जोर में कम नहीं थे। वह कमर उचका कर मुझे उठा ही लेती थी। मुझे लगता था जैसे लहरों में नाव पर बैठा दोल रहा हूँ। उसकी मक्खन मुलायम योनि भी क्या शानदार थी।

मैं एक बार स्खलित होकर टिकने की अपार क्षमता से लैस था। लेकिन साली स्खलित होने के बाद और संवेदनशील हो चुकी थी। फिर से झड़ने लगी। अगल-बगल ऊपर-नीचे, तूफान में नौका की तरह हिचकोले खाने लगी। मैं बस उसके अंदर बने रहने की कोशिश में लगा रहा।
शांत पड़ी तो मुझे परे ठेलने लगी, “ओह… प्लीज, बरदाश्त नहीं हो रहा। जीजा जी, प्लीज, प्लीज…”
कौन पुरूष योनि के स्वर्ग से बिना प्राण त्यागे बाहर आना चाहता है? मैं उसे जकड़े रहा,”मैं कुछ नहीं करूंगा। बस अंदर ही रहूंगा।”
सचमुच ही मैंने कुछ नहीं किया। शांत पड़ा रहा। एक बार हिला तो फिर नहीं नहीं करने लगी।

दो मिनट की फुर्सत देकर फिर सक्रिय हुआ। अब मैं उसकी ना-ना की अनसुनी करता उसे किसी जंगली घोड़ी की तरह साध रहा था। एक चरम सुख के बाद दूसरा, दूसरे के बाद तीसरा – उसे तुरत तुरत झड़ने की आदत डालनी होगी। उसकी योनि में इतना गीलापन बढ़ गया था कि फच-फच, चिट-चिट की आवाजें आ रही थीं। मैं ‘चिट-चिट’ को सुनने के लिए केवल पेड़ू से पेड़ू सटाने तक ही अंदर जाता और निकाल लेता। निकालने घुसने में आवाज होती ‘चिट’। केवल उसे गरदन तक ही अंदर डालना फिर निकाल लेना ‘चिट’ फिर जोर से ठोक देना- ‘फच!’
“चिट-चिट, फच-फच… चिट-चिट, फच-फच… चिट-चिट… चिट-चिट… फच-फच… फच-फच-फच…”
पिंकी से मिलन के वर्षों से ख्वाब देखते मन के लिए यह सर्वोत्कृष्ट क्षण था। योनि-स्वर्ग में आनन्द विहार। नारी जीवन को धन्य कर देने वाला संभोग। उसको धन्य करने में स्वयं भी धन्य होने का एहसास!

प्यार नहीं, सेक्स अंधा होता है। मैं पागलों की तरह धक्के लगा रहा था; सुमन ने टोका, “धीरे जरा, कहीं कमर न मचक जाए।” मैं मर्दानगी दिखाने के लिए उल्टे और जोर से करने लगा।
पिंकी मुझे अपने शरीर से मुझे दूर रखने की कोशिश कर रही ताकि केवल योनि में घर्षण हो, भगनासा पर चोट न पड़े। मैंने उसकी टांगें पकड़ी और अपने कंधों पर चढ़ा लीं। लिंग और अंदर चला गया। उसके मुख पर किसी छल्ले से टकराने का सा एहसास होने लगा। शायद वह पिंकी के गर्भद्वार पर दस्तक दे रहा था। पिंकी ओह ओह करती खुद को मुझसे छुड़ाने लगी। पर वह कुछ कर नहीं सकती थी। मेरे धक्के जारी रहे।
वह फिर स्खलित होने लगी। एक लम्बी आऽऽऽह… फिर ढीली पड़ गई। कुछ देर अनवरत चोट खाकर फिर बोलने लगी- हाँ-हाँ-हाँ-हाँ… और फिर एक लम्बी कराह। उसने मेरे कंधों से पाँव उतारकर मुझे खींचकर अपने में दबा भींच लिया। कहीं दाँत चुभोया, कहीं नाखून गड़ाए। अपने पूरे शरीर को यूँ मरोड़ने लगी जैसे कोई भूत सवार हो गया हो।

अब मैं भी उसके अंदर स्खलित होने लगा। मैंने उसके होंठों को अपने दाँतों में पकड़ लिया और उसकी योनि में पूरा ठेलकर लिंग को मसलने, रगड़ने लगा। पता नहीं कहाँ से फिर से इतना वीर्य मेरे अंदर आ गया था। जब लिंग की हिचकियाँ शांत हुई तो मेरे फोतों से जैसे एक ऐंठन उठी और कमर से निकलकर पूरे बदन को मरोड़ती निकल गई।
दर्द से मैं उसके ऊपर पड़ गया। उसके होंठों को एक छोटा चुम्बन लेकर उसके सीने पर सिर रख दिया। उसका भी दिल तेज तेज धड़क रहा था। मैं सुन रहा था- उसके सीने के अंदर साँसों की आवाजाही; महसूस कर रहा था – बीच सीने पर पड़े मेरे गाल के अगल-बगल स्तनों की मुलायम उठान। लिंग पर गरमाहट और योनि की दीवारों की फिसलन। हमारे फेफड़ों में चलते अंधड़ के बाहर कमरे में ठहरी हुई हवा, बाहर वातावरण में छाया मौन, केवल कभी-कभी कहीं दूर से आती कुत्ते भूँकने की आवाज।

“जीजाजी..ऽ.ऽ.ऽ..”

पिंकी पर से उतर कर मैंने सुमन को अपने पास खींचा और एक गाढ़ा चुम्बन दिया। मैं उसका बेहद कृतज्ञ था। जिंदगी का कितना बड़ा खवाब उसने सच करा दिया था।
मेरे दोनों तरफ खाली बगलें दो स्त्री शरीरों से भर जाती हैं। दो सिर मेरी दोनों बाँहों पर आकर टिक जाते हैं और उनकी गर्म साँसें मेरी छाती पर पड़ने लगती हैं। दोनों बहनें मुझे चूमती हैं, मेरी छाती के बालों में अपना मुँह रगड़ती हैं, उसमें मेरे निपुल्स को गुदगुदाती हैं। मैं कभी पिंकी को,कभी सुमन को चूमता हूँ।दोनों बहनों के माथे पर आनन्द और कृतज्ञता से फेरते फेरते मेरे हाथ शिथिल होकर गिर जाते हैं।

जीजाजी ..ऽ..ऽ…

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