शूल

प्रेषिका : स्लिम सीमा

कल बुआ का श्राद्ध विधि-विधान से सम्पन्न हो गया, लगभग सभी लोग चले गए, अंश आज सुबह ही गया था, सलोनी का एक पेपर बाकी था तो उसे लेकर जाना पड़ा। कल कांता भाभी और फूफाजी भी चले जायेंगे, प्रियांश धीरज की सहायता के लिए रुक गया है।

20-25 दिनों से, जब से बुआ की तबियत बिगड़ने लगी थी धीरज को सांस लेने की भी फुर्सत नहीं थी, वह छुट्टी लेकर लगातार बुआ के साथ रह रहा था, डॉक्टर को दिखाने या अस्पताल ले जाने की पूरे गाँव के जिद के आगे भी बुआ नहीं झुकी थी,”नहीं ! मुझे कहीं नहीं जाना है, मरना है तो यहीं मरूँगी अपने कुल देवता की शरण में ! मेरा बेटा भरी जवानी में चला गया, मुझे क्यों बुढ़ापे में जिंदा रखना चाहते हो?”

“मैं तो सच्चे अर्थों में बेटे के साथ उसी दिन मर गई थी, उसकी कुछ जिम्मेदारियाँ थी, जिन्हें मैंने अपनी सामर्थ्य से पूरा कर दिया है, जो नहीं कर पाई उसे ईश्वर सम्भालेंगे !” बुआ ने एक तरह से इच्छा-मृत्यु का वरण किया था।

उस रात धीरज उनके सिहाने बैठा ऊंघ रहा था, उन्हें साँस लेने में बहुत तकलीफ हो रही थी, उन्होंने धीरे से धीरज का हाथ दबाया, धीरज ने चौंक कर पूछा- बुआ पानी चाहिए?

“उस अलमारी को खोल कर मेरी डायरी दे !”

धीरज ने डायरी निकाल कर उन्हें थमा दी बुआ ने एक कागज निकाल कर उसकी तरफ बढ़ाया-

“क्या है?”

बुआ ने धीरे से कहा- पढ़ ले, मेरे मरने के बाद अपने फूफा को दे देना !

धीरज उसे मोड़ कर रखने लगा तो बुआ धीरे से बोली- ‘पढ़ ले और जैसा लिखा है, वैसे ही करना !

धीरज पढ़ने लगा। बिना किसी संबोधन के चंद पंक्तियाँ थी- मैं जा रही हूँ, आप आज़ाद तो पहले भी थे, फिर भी मेरे कारण समाज में जो एक बंधन था, उससे भी मैं आपको मुक्त करती हूँ, आपके दिए शूल को मेरा जीवित शरीर तो झेल गया पर मेरे मृत शरीर को छूकर मेरी आत्मा को दूषित मत कीजियेगा, मेरे श्राद्ध का पूरा कर्म मेरे पोते करेंगे। इन तेरह दिनों में उन लोगों की देखभाल धीरज और उसकी पत्नी करेंगे। आपकी बहू को भी उन लोगों से दूर ही रखियेगा क्योंकि मैं इतने दिन सूक्ष्म शरीर से उन लोगों के साथ रहूँगी और आप लोगों का स्पर्श मुझे दूसरे लोक में भी मुक्ति नहीं देगा।

धीरज की आँखे भर आई थी, वो विवशता से बुआ की तरफ देखने लगा।

बुआ ने कराहते हुए कहा- तू क्यों रोता है? तूने तो अपना कर्तव्य पूरा निभाया, पूरी जिंदगी में कभी कुछ पुण्य ज़रूर किये थे जिससे तुम मिले। मेरे पोते तुम्हारे हवाले हैं, उन्हें सही राह दिखाना। उन लोगों को फोन कर दो, मुंबई से आने में भी तो समय लगेगा।

धीरज फोन करने हॉल में गया और लौट कर आया तब तक बुआ अपनी अनंत यात्रा पर निकल चुकी थी। धीरज की पत्नी बगल वाले कमरे में सो रही थी, उसे बुला कर उसने शव को भूमि पर उतारा, घड़ी देखी, 6 बज रहे थे, ठण्ड की सुबह थी, धूप अभी निकली नहीं थी, उसने फूफा को फोन कर दिया, अभी तक नाम मात्र को निभते चले आ रहे रिश्ते का अंत तो उन्हें बताना ही था।

दो घंटे के भीतर वे लोग आ भी गए, गाँव वालों की भीड़ इकट्ठी हो गई थी।

धीरज ने एकांत में बुआ का पत्र लिफाफे के आवरण से ढक कर फूफा को पकड़ा दिया, उनके चेहरे की प्रतिक्रिया देखने के लिए भी वह वहाँ नहीं रुका। पत्र देने के बाद से धीरज महसूस कर रहा था कि फूफाजी उसे देख कर आँखें चुरा लेते थे। जिस घटना को वे अब तक तीन ही लोगों तक सीमित मान कर वे सहज थे, आज चौथे को उसका साक्षी जान कर असहज हो गए थे। धीरज भी उनके सामने जाने की कम से कम कोशिश करता।

धीरज को उड़ती-उड़ती खबर मिली थी कि भाभी अब मायके में ही रहती हैं, फूफाजी अकेले ही रहते थे, किसी भी असामान्य सम्बन्ध की आयु क्षीण ही होती है उन लोगों की नजदीकियों ने कितनों को उनसे दूर किया था, अब शायद उन्हें समझ में आ रहा होगा। बुआ ने तो उन्हें सदा के लिए दूर कर ही दिया था। अंश और प्रियांश भी उनके करीब नहीं आ पाए, वे दोनों बस औपचारिकतावश उनके पास जाते थे।

दूसरे दिन बुआ दोनों पोतों और भतीजों के कन्धों पर चढ़ कर शान से विदा हो गई। अंश तो कुछ शांत था, प्रियांश का रो रो कर बुरा हाल था। धीरज के मना करने के बावजूद अंश सलोनी को लेकर आया था- नहीं चाचा, दादी उसे बहू मान चुकी थी और बहू को सास के अंतिम दर्शन तो करना ही चाहिए। गाँव में भी सबको उसका परिचय मेरी होने वाली पत्नी के रूप में ही दीजिएगा।

धीरज के पिता बुआ के चचेरे भाई थे, उनकी आकस्मिक मौत से धीरज का पूरा परिवार संकट में पड़ गया था, गाँव की नाम मात्र की खेती से किसी तरह खाने लायक निकल पाता था, धीरज दसवीं में था और उसका छोटा भाई सातवीं में ! ऐसे समय में बुआ इन दोनों भाइयों को अपने साथ ले आई, बुआ का गाँव शहर के पास ही था, धीरज बी एड करके बुआ के गाँव के ही स्कूल में अध्यापक हो गया था और तभी से बुआ के दूसरे बेटे का फ़र्ज़ निभा रहा था। छोटा भाई भी डिप्लोमा करके नौकरी करने लगा था। संजीव भइया धीरज से पाँच महीने बड़े थे, जब तक संजीव भईया स्कूल में थे तब तक बुआ फूफाजी के साथ सिंगरोली में ही रहती थी। संजीव भईया का पी एच यू के एक मेडिकल कॉलेज में एडमिशन हो गया, बुआ को घर का सूनापन काटता।

फूफाजी अपनी सिविल इंजीनियरिंग की नौकरी छोड़ कर बिल्डर बन गए थे, पूरे शहर में कई हाऊसिंग सोसाइटियों का कंस्ट्रक्शन उन्होंने ही करवाया था। अच्छी खासी कमाई थी। फूफाजी अपनी व्यस्त दिन चर्या के कारण बुआ को समय नहीं दे पाते, गाँव में भी बहुत संपत्ति थी इसलिए बुआ धीरे धीरे गाँव में ही आकर बस गई, संजीव भईया इंटर्नशिप कर रहे थे। बुआ उनसे कहती ”शादी कर ले ” लेकिन बिना पीजी किये वे शादी के लिए तैयार नहीं थे। बुआ उन्हें समझाती “तू पीजी करना, बहू कुछ दिन मेरे पास रहेगी।”

एक बार फूफाजी के एक सहयोगी के यहाँ संजीव भईया ने कांता भाभी को देखा और मुग्ध हो गए। कांता भाभी के पिता शहर के नामी ठेकेदार थे। भईया का पीजी के बाद शादी का फ़ैसला बदल गया और उनकी शादी हो गई।

शादी के बाद भाभी अक्सर भईया के पास होस्टल चली जाती या भईया को सिंगरोली बुला लेती। भाभी ने दो साल में दो पोते देकर बुआ को निहाल कर दिया था।

भईया इस बार खूब मेहनत कर रहे थे सबको उम्मीद थी की उनका सिलेक्शन हो जायेगा लेकिन भाग्य में तो कुछ और ही लिखा था, उनकी मोटर साईकल का ऐसा जबरदस्त एक्सीडेंट हुआ कि उन्होंने घटनास्थल पर ही दम तोड़ दिया। पूरा परिवार दुःख के इस भीषण प्रहार से टूट गया कोई किसी को सहारा देने लायक नहीं था। धीरज और उसकी पत्नी ही किसी तरह सबको संभाल रहे थे। बुआ सूनी आँखों से बस दूर कहीं देखती रहती। दोनों पोतों को देख कर ही उनकी आँखों में थोड़ी चमक आती।

फूफाजी जब शहर जाने लगे तो बुआ से कहा- कांता को कोई नौकरी कर लेनी चाहिए, घर मैं बैठ कर इतनी बड़ी जिंदगी कैसे गुजरेगी।

बुआ बिना किसी प्रतिवाद के सब कुछ केवल सुन लेती। एक साल के बाद कांता भाभी ने शहर के एक प्रायवेट स्कूल में नौकरी कर ली। बुआ कुछ दिन दोनों बच्चों को लेकर उनके साथ रही, फिर उन्होंने तय किया कि जब तक दोनों बच्चे स्कूल जाने लायक होते हैं, उन्हें वे अपने साथ गाँव में रखेंगी, बीच-बीच में भाभी आ जाया करेंगी। वैसे भी बच्चों के प्रति भाभी को मोह न पहले था न अब !

बुआ बच्चों को घर में प्रारंभिक शिक्षा के साथ उत्तम संस्कार भी दे रही थी, दोनों का नामकरण भी बुआ ने ही किया था- अंश और प्रियांश ! ‘मेरे संजीव के अंश और प्रियांश है ये दोनों’

जब उनके स्कूल जाने का समय आया भाभी को उनकी देखभाल में परेशानी होने लगी तो हार कर उन्हें सिंगरोली में ही होस्टल में डालना पड़ा। धीरज महीने में 2-3 बार उन बच्चों को दादी के हाथ का बना ढेर सारा खाने का सामान पहुँचाता। धीरज को भाभी के स्वाभाव पर आश्चर्य होता, इन्सान जिससे प्रेम करता है उसकी निशानी से तो उससे भी अधिक प्रेम करना चाहिए। पता नहीं भाभी को भईया से प्रेम था या केवल दैहिक सुख की कामना से ही वे उनका साथ चाहती थी।

इधर फूफाजी की भी हरकतें उसे अजीब सी लगती वे भाभी की छोटी से छोटी ज़रूरतों का भी ख्याल रखते, उन्हें स्कूल छोड़ना, घर ले आना, सब फूफाजी की ही ज़िम्मेदारी थी। कितनी भी व्यस्तता क्यों न हो, वे सब काम छोड़ कर भाभी का काम करते। बुआ के प्रति फूफाजी की लापरवाही को वह उनकी आदत समझता था लेकिन बुढ़ापे में व्यक्ति की आदतें क्या इतनी अधिक बदल सकती हैं?

एक बार जब गाँव मैं उसकी पत्नी ने कहा था- कांता भाभी जब नहा रही थी, तब बाथरूम में गीज़र खराब हो जाने पर फूफाजी उन्हें गर्म पानी भर कर दे रहे थे।

तब धीरज ने उसे बेकार की बात कह कर टाल दिया था लेकिन उसे यह देख कर बुरा लगता कि महिलाओं की ज़रूरत की नितांत निजी चीजें भी फूफाजी ही भाभी को लाकर देते !

फिर भी वह मन को समझाता कि शायद बेटे को खो देने के बाद वह भाभी से हमदर्दी में ही उनका ख्याल रखते हैं।

धीरे धीरे समय बीतता गया, अंश का दसवीं का बोर्ड था, बुआ अब ज्यादा शहर नहीं जा पाती थी, बच्चों से मिले बहुत दिन हो गए थे, एक दिन उन्होंने धीरज को बुला कर कहा- कल रविवार है, मुझे ज़रा बच्चों से मिला ला ! बहु से भी बहुत दिनों से नहीं मिल पाई हूँ, अपने फूफाजी को फोन करके बता देना कि मैं आ रही हूँ।

उस दिन एस टी डी फेल थी और इतनी छोटी सी बात के लिए धीरज ने खबर करना ज़रूरी नहीं समझा।

वे लोग 5 बजे वाली बस से चले और 7 बजते बजते पहुँच भी गए। धीरज ने दरवाजे की घण्टी दबा दी, काफी देर बाद फूफाजी दूध का पतीला लिए बाहर आए। उन्होंने समझा शायद दूध वाला आया है, उन लोगों को देख कर वे चौंक गए, उनके चेहरे का रंग बदल गया।बिना इस बात पर ध्यान दिए बुआ मुस्कराती हुई सामान लिए सीधे अपने बेडरूम में चली गई। फूफाजी छत पर चले गए थे। तब तक दूध वाला आ गया और धीरज दूध लेने लगा। अचानक बुआ बदहवास सी बाहर आ गईं, उनका चेहरा बिल्कुल सफ़ेद पड़ गया था, धीरज उनका चेहरा देख कर डर गया। बचपन मैं बरफ के गोले को एक ही जगह से चूस-चूस कर जैसे वह सफ़ेद कर देता था वैसा ही चेहरा बुआ का हो गया था।

भाभी को नहीं आता देख धीरज तीन कप चाय बना लाया। तब तक बुआ बाहर से अन्दर आती हुई बोली- बच्चों को जल्दी ले आ।

और पूजा घर में घुस गई।

धीरज अकेला ही चाय पीने लगा। तभी उसने भाभी को बुआ के कमरे से निकलते देखा, वे चुपचाप बाथरूम में घुस गई थीं। न समझते हुए भी धीरज को बहुत कुछ समझ में आ गया।

वह कौन सी बात थी जिसने फूफाजी और बुआ दोनों के चेहरे का रंग बदल दिया, इसका अनुमान धीरज को भी हो गया। वह जल्दी जल्दी चाय खत्म करके बच्चों को लाने के लिए निकल गया। घर के दम घोंटू वातावरण से वह भी घबरा गया था।

बच्चे घर में घुसते ही दादी को ढूंढने लगे। दोनों को देखते ही बुआ उन्हें गले लगा कर चीत्कार कर उठी। ऐसा करूण रुदन तो उन्होंने भईया की मौत पर भी नहीं किया था।

बच्चे भी नहीं समझ पा रहे थे कि दादी इतना क्यों रो रही हैं। बच्चे दो ही घंटे के लिए आये थे, बुआ ने उन्हें पढ़ाई सम्बन्धी ज़रूरी हिदायतें दी और साथ लाये खाने का सामान उन्हें सौंप कर उन्हें विदा कर दिया। धीरज बच्चों को पहुँचा कर लौटा तब तक बुआ भी चलने को तैयार बैठी थी।

धीरज ने कहा भी- बुआ, बस शाम को है। यह कहानी आप अन्तर्वासना डॉट कॉंम पर पढ़ रहे हैं।

लेकिन बुआ ने शांत स्वर में जवाब दिया- चलो स्टैंड पर ही बैठेंगे, यहाँ दम घुट रहा है।

घर लौटने तक रात हो गई। धीरज ने तो बीच में दो बार चाय पी ली थी, लेकिन बुआ ने सुबह से एक घूंट पानी तक नहीं पिया था। उन्होंने रात को धीरज को अपने पास ही रोक लिया, खाना बनाया उसे परोस कर पास ही बैठ गई। उनका शांत और गंभीर स्वर धीरज सुन रहा था- आज तूने जो कुछ भी देखा या समझा, उसे केवल अपने तक ही सीमित रखना। मेरी तो कोख और मांग दोनों ही उजड़ गए। अगर वे किसी वेश्या को भी घर में लाकर रख लेते तो भी मुझे इतना कष्ट नहीं होता। बहू किसी के साथ भाग जाती या दूसरी शादी कर लेती, मैं बर्दाश्त कर लेती। दोनों ने सम्बन्ध की पवित्रता को ही कलंकित कर दिया। मेरे साथ की गई बेवफाई के लिए मैं उन्हें माफ़ कर भी देती, लेकिन मेरे बेटे के साथ उन्होंने धोखा किया, इसके लिए मैं उन्हें सौ जन्मों तक माफ़ नहीं करुँगी। चुप मैं केवल इसलिए रही या रहूँगी, क्यूंकि समाज में अगर उनकी इज्ज़त पर कीचड़ उछलेगा तो उसके छींटे मेरे अंश और प्रियांश की पवित्र जिंदगी को भी मलिन कर देंगे।

उस दिन के बाद से बुआ की तपस्या शुरू हुई। उन्होंने अपनी चूड़ियाँ उतार दी, बिंदी और सिंदूर लगाना बंद कर दिया। अपने गहनों के तीन भाग कर एक धीरज की पत्नी को दे दिया, दो भाग अंश और प्रियांश के नाम खोले अलग अलग लोकरों में डाल दिए। तन ढकने के लिए दो-तीन सादी और शरीर बचाने के लिए दो समय का खाना उनकी ज़रूरत था। अंश और प्रियांश जब परीक्षा के बाद आये, तब बनारस ले जाकर उनका जनेऊ कर आई। अंश का रिज़ल्ट अच्छा आया जिस साल उसने बारहवीं की परीक्षा दी, उसी साल उसका चयन मुंबई के एक अच्छे इंजीनियरिंग कॉलेज में हो गया। प्रियांश भी पहले ही साल मेडिकल में आ गया। छुट्टियों में दोनों भाई अपने माँ या दादाजी के पास जाते तो ज़रूर थे लेकिन श्रद्धा और प्यार सिर्फ दादी से ही था…

इस बार दुर्गा पूजा की छुट्टियों में धीरज बुआ को दिल्ली छोड़ आया, वहाँ अंश किसी प्रोजेक्ट के सिलसिले में आया हुआ था, प्रियांश की भी तीन-चार दिन की छुट्टी थी, वह भी आ गया।

बुआ उन्हें लेकर वैष्णो देवी गई थी, वहाँ से लौट कर वे बहुत खुश नज़र आ रही थी। एक दिन धीरज को बुला कर उन्होंने एक फोटो दिखाते हुए कहा- देख ले तेरी होने वाली बहू है, अंश के साथ ही पढ़ती है, दिल्ली में उससे मिल चुकी हूँ, उसे भी वैष्णोदेवी ले गई थी। देवी के सामने दोनों को एक दूसरे का हाथ थमा कर मैं निश्चिन्त हो गई हूँ। बहुत सुन्दर, समझदार और सुलझी हुई लड़की है। शादी तो दोनों पढ़ाई खत्म करके ही करेंगे, उतना इंतज़ार यह शरीर नहीं कर पायेगा। अब बोरिया-बिस्तर समेटने का समय आ गया है।जिंदगी के लिए मंसूबे बनाते तो लोगों को बहुत देखा और सुना है, बुआ तो मौत की तैयारी में व्यस्त थी। ऐसा लगता था कि यमदूत उनके खरीदे गए गुलाम की तरह खड़े हों।

धीरज कल शाम से ही बेसुध सोया था, प्रियांश की बात से उसकी नींद खुली- चाचा उठिए, दादा और माँ भी चले गए। आज तो दादी के फ़ूल संगम में विसर्जित करने के लिए निकलना है ना !

सो लेने से धीरज की थकावट सचमुच कम हो गई थी। वह इलाहबाद जाने के लिए तैयार होने लगा। उसे संगम में उन कंटीली यादों को भी विसर्जित करना था, जिनके शूल से छलनी हो कर उसकी प्यारी बुआ इन फूलों में परिणित हुई थी।

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