अगर उस दिन मैं दरवाजा खोल देती

(Agar Mai Us Din Darwaja Khol Deti)

फ़ुलवा 2011-06-13 Comments

कई बातें ऐसी होती हैं जो बीत जाने के बाद बरसों तक, कई बार तो ताउम्र अपनी याद बनाये रखती हैं।

मुझे आज भी बहुत अच्छी तरह याद है कि वो जाड़ों की एक ऊँघती हुई सी दुपहरी थी, मैं घर पर निपट अकेली थी, करने को कुछ खास नहीं था तो मैं अपनी पसंद के गाने बजाते हुए यों ही घर के छोटे-मोटे काम निपटाने में लगी हुई थी।

दोपहर के बारह साढ़े बारह बजे होंगे कि अचानक दरवाजे की घंटी की आवाज ने मेरा ध्यान खींचा।

दोपहर के सन्नाटे में यह घंटी बहुत अजीब-सी लगी, इस बेवक्त कौन होगा, मेरे मन में सवाल उठा।

मैं घर का मुख्य दरवाजा न खोलकर डाइनिंग रूम के दरवाजे की ओर लपकी जो दरअसल हमारे पोर्च में खुलता था। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि हम सब बाहर आने-जाने के लिए उसी दरवाजे का ज्यादा इस्तेमाल किया करते थे। मैंने दरवाजा खोला लेकिन बाहर का लोहे की जाली वाला दरवाजा बंद रहने दिया।

सामने एक हट्टा-कट्टा आदमी नजर आया।

‘नमस्कार मैडम! हम एक एनजीओ से आया, हमारा गांव में बाढ़ आने से बहुत नुकसान हुआ। हम लोग कुछ सामान बेचता है आप खरीदेगा तो बहुत मदद होगा!’ वह टूटी-फूटी हिंदी में अपनी बात कह रहा था और अब तक दरवाजे के एकदम करीब आ चुका था।

उसका हुलिया देखकर मेरे मन में एक अनजानी आशंका ने सर उठा लिया।

उसकी आँखें एकदम सुर्ख लाल थीं और उसने मुँह में पान भी दबा रखा था। इस बीच वो अपना ‘आई कार्ड’ दिखाता हुआ लगातार मुझसे दरवाजा खोलने का आग्रह कर रहा था। वह ज्यादा करीब आ चुका था और अचानक एक तीखी गंध मेरे नथुनों में टकराई।

ओह! उसने तो शराब पी रखी थी।

इस बीच मौका देखकर उसके साथी ने अपना बैग खोल लिया था और कुछ-कुछ सामान निकाल कर सामने फर्श पर रखना शुरू कर दिया था।

‘मुझे कुछ नहीं चाहिए!’ मैंने थोड़ा तेज लहजे में कहा।

इतना कहते-कहते मेरी नजर सामने घर के बाहर बाऊँड्री में लगे गेट की ओर चली गई जहाँ एक आदमी खड़ा था। वहीं एक दूसरा आदमी भी था जो मेरी नजर देखकर तेजी से बरामदे में खंभे की ओट में चला गया।सड़क एकदम सुनसान थी और यह समझने में रत्ती भर भी कसर नहीं रह गई थी कि वह बंदा अपने साथ पूरी गैंग लेकर आया था।

इस बीच वो आदमी लगातार कुछ न कुछ बोले जा रहा था, एकदम धाराप्रवाह!

शायद वह मुझे अपनी बातों में उलझाने की कोशिश कर रहा था। इस बीच मेरी घबराहट बहुत बढ़ गई थी, लेकिन मैं किसी तरह उसे बाहर आने से रोके हुई थी। मैं नहीं चाहती थी कि उनको मेरी कमजोरी का जरा-सा भी अहसास हो।

मैं अचानक बहुत जोर से चीखी ‘जाओ यहाँ से’ और धड़ाम से दरवाजा बंद कर दिया।

कुछ देर दम साधने के बाद मैंने धीरे से खिड़की से झांका, मुझे बाहर कोई नजर नहीं आया, शायद वे चले गए थे।

अगर घर में कोई बच्चा होता और वह दौड़कर पहले दरवाजा खोल देता, या गलती से दरवाजा खुला रह गया होता अथवा मैंने ही उस वक्त अपने विवेक का इस्तेमाल नहीं किया होता तो… उस आदमी की लाल आंखें याद आती हैं तो आज भी मेरी रीढ़ की हड्डी में कंपकंपी शुरू हो जाती है।

आए दिन अखबारों में ऐसी वारदात पढ़ने को मिलती रहती हैं कि दोपहर में सुनसान देखकर बदमाशों ने घर में लूट की वारदात को अंजाम दिया। प्राय: ऐसे मौकों पर घर में महिलाएं अकेली ही होती हैं और बदमाश इस बात की ताकीद करके ही वारदात को अंजाम देते हैं।

उस घटना को याद करके मुझे आज भी डर तो लगता है लेकिन यह राहत भी मिलती है कि समय पर बुद्धि का समुचित इस्तेमाल करके मैंने एक बड़ी वारदात से खुद को और अपने घर-परिवार को बचा लिया था।

‘उसकी आंखें एकदम सुर्ख लाल थीं और उसने मुंह में पान भी दबा रखा था। वो ‘आई कार्ड’ दिखाता हुआ लगातार मुझसे दरवाजा खोलने का आग्रह कर रहा था।’

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